Wednesday, April 18, 2018

क्या मोदी सरकार के FRDI बिल के खौफ से खाली हो रहे हैं एटीएम?

क्या है एफआरडीआई बिल

प्रस्तावित एफआरडीआई बिल के जरिए केन्द्र सरकार सभी वित्तीय संस्थाओं जैसे बैंक, इंश्योरेंस कंपनी और अन्य वित्तीय संगठनों का इंसॉल्वेंसी और बैंकरप्सी कोड के तहत उचित निराकरण करना चाह रही है. इस बिल को कानून बनाकर केन्द्र सरकार बीमार पड़ी वित्तीय कंपनियों को संकट से उबारने की कोशिश करेगी.

इस बिल की जरूरत 2008 के वित्तीय संकट के बाद महसूस की गई जब कई हाई-प्रोफाइल बैंकरप्सी देखने को मिली थी. इसके बाद से केन्द्र सरकार ने जनधन योजना और नोटबंदी जैसे फैसलों से लगातार कोशिश की है कि ज्यादा से ज्यादा लोग बैंकिंग व्यवस्था के दायरे में रहें.
इसके चलते यह बेहद जरूरी हो जाता है कि बैंकिंग व्यवस्था में शामिल हो चुके लोगों को बैंक या वित्तीय संस्था के डूबने की स्थिति में अपने पैसों की सुरक्षा की गारंटी रहे.

एफआरडीआई बिल का प्रमुख प्रावधान

इस बिल में एक रेजोल्यूशन कॉरपोरेशन का प्रावधान है जिसे डिपॉजिट इंश्योरेंस और क्रेडिट गारंटी कॉरपोरेशन की जगह खड़ा किया जाएगा.

यह रेजोल्यूशन कॉरपोरेशन वित्तीय संस्थाओं के स्वास्थ्य की निगरानी करेगा और उनके डूबने की स्थिति में उसे बचाने का प्रयास करेगा. वहीं जब वित्तीय संस्था का डूबना तय रहेगा तो ऐसी स्थिति में उनकी वित्तीय देनदारी का समाधान करेगा. गौरतलब है कि रेजोल्यूशन कॉरपोरेशन का एक अहम काम ग्राहकों को डिपॉजिट इंश्योरेंस देने का भी है हालांकि अभी इस इंश्योरेंस की सीमा निर्धारित नहीं की गई है.

क्यों है एफआरडीआई बिल से डर

एफआरडीआई बिल के जरिए रेजोल्यूशन कॉरपोरेशन को फेल होने वाली संस्था को उबारने के लिए (बेल इन) कदम उठाने का भी अधिकार है.

जहां बेल आउट के जरिए सरकार जनता के पैसे को सुस्त पड़ी अर्थव्यवस्था में निवेश करती है जिससे उसे उबारा जा सके वहीं बेल इन के जरिए बैंक ग्राहकों के पैसे से संकट में पड़े बैंक को उबारने का काम किया जाता है.

एफआरडीआई बिल के इसी प्रावधान के चलते आम लोगों में डर है कि यदि उनका बैंक विफल होता है तो उन्हें अपनी गाढ़ी कमाई से हाथ धोना पड़ सकता है. गौरतलब है कि मौजूदा प्रावधान के मुताबिक किसी बैंक के डूबने की स्थिति में ग्राहक को उसके खाते में जमा कुल रकम में महज 1 लाख रुपये की गारंटी रहती है और बाकी पैसा लौटाने के लिए बैंक बाध्य नहीं रहते. प्रस्तावित एफआरडीआई बिल में फिलहाल सरकार ने गांरटी की इस रकम पर अभी कोई फैसला नहीं लिया है.

Friday, April 13, 2018

मोदी इतने श्रीहीन हो गए हैं कि वे दोबारा सत्ता में शायद ही आ पायें

लगता है कि भाजपा की मुश्किलें बढ़ती जा रही हैं। दलित असंतोष चरम पर है, दूसरी ओर सवर्ण हिंदू आरक्षण के विरुद्ध लामबंद हो रहे हैं। भाजपा के अपने सांसद भाजपा की खिल्ली उड़ा रहे हैं।

यशवंत सिन्हा, शत्रुघ्न सिन्हा तो पुराने लोग हैं, वे स्वयं को वरिष्ठ मानते हैं और आज उपेक्षित हैं, पर उनकी कही बातें मीडिया में छपने के बावजूद पार्टी पर उसका कोई असर नहीं होता था। अरुण शौरी जैसे वरिष्ठ पत्रकार भी भाजपा के लिए अप्रासंगिक हैं।

भाजपा इन में से किसी की परवाह नहीं करती। पर भाजपा के दलित सांसदों की मुखर आवाज़ मोदी और शाह के लिए चिंता का विषय है। व्यापारी वर्ग भाजपा से खुश नहीं है, युवा वर्ग भाजपा से खुश नहीं है, दलित वर्ग भाजपा से खुश नहीं है, सवर्ण हिंदु भाजपा से खुश नहीं हैं, मुसलमान और ईसाई भाजपा के कभी थे ही नहीं। दलितों और सवर्णों का टकराव भाजपा के गले की हड्डी है जो न निगलते बन रहा है न उगलते।

भाजपा के सहयोगी दल अपनी उपेक्षा से परेशान हैं। तेलुगु देशम अलग हो चुकी है, शिवसेना हालांकि मंत्रिमंडल में शामिल है पर वह किसी विपक्षी दल से कम नहीं और उसने भी अगला चुनाव स्वतंत्र रूप से लड़ने की घोषणा कर दी है। राम बिलास पासवान जैसे सहयोगी भी हवा का रुख पहचान कर हिलने-जुलने लगे हैं। दक्षिणी राज्यों का असंतोष भाजपा के विजय अभियान के लिए बाधा बनकर उभर रहा है।
मुख्यमंत्री बनने के बाद योगी आदित्यनाथ जिस तरह से सुर्खियों में आये थे और यह लग रहा था कि भाजपा को एक जूनियर नरेंद्र मोदी मिल गया, वह खुशफहमी भी अब नहीं रही। सपा-बसपा मिलन ने विपक्ष को एकजुट रहने का नया मंत्र दिया है। रोज़-रोज नई चुनौतियां सामने आ रही हैं।

अपने शुरू के सालों में हर रोज़ नया नारा देकर मोदी ने अपनी झोली खाली कर ली है।

जन-धन योजना, प्रधानमंत्री आवास योजना, उज्ज्वला योजना, नमामि गंगे योजना, सुकन्या समृद्धि योजना, प्रधानमंत्री मुद्रा योजना, जीवन ज्योति बीमा योजना, सुरक्षा बीमा योजना, सांसद आदर्श ग्राम येाजना, फसल बीमा योजना, ग्राम सिंचाई योजना, गरीब कल्याण योजना, जन औषधि योजना, किसान विकास पत्र, स्मार्ट पुलिस योजना, मेक इन इंडिया, स्टार्ट-अप इंडिया, स्मार्ट सिटी योजना, स्वच्छ भारत अभियान आदि घोषणाओं में से कितनी ऐसी हैं जिनके बारे में आपको कोई चर्चा सुनने को मिलती है। अधिकारियों तक को इन योजनाओं का पता नहीं है। व्यवस्था में कोई ऐसा बड़ा परिवर्तन नहीं आया है जिससे हमारा जीवन आसान हो सके।

हां, समाज में यह परिवर्तन अवश्य आया है कि सवर्ण हिंदुओं का एक वर्ग अब कट्टर बन गया है और मुसलमानों की ही नहीं बल्कि दलितों की भी शामत आ गई है। समाज बंट रहा है। सत्तापक्ष की शह पर झूठ की बड़ी फैक्ट्री खड़ी हो गई है और सोशल मीडिया पर भद्दी भाषा में धमकी भरे संदेश वायरल हो रहे हैं। असहमति जताने वालों को देशद्रोही बताया जा रहा है।

भाजपा शासन के इन चार सालों में विकास के माडल की पोल भी खुल गई है।

राज्यों में भाजपा का शासन आया है लेकिन सरकारी ढर्रे में कोई गुणकारी परिवर्तन नहीं आया। लोगों में निराशा है। मोदी की घोषणाओं की असफलता को छुपाने के लिए अजीबो-गरीब तर्क दिये जा रहे हैं।

दरअसल, अब मोदी के पास न कोई नई नीति है और न ही नया कार्ड।

सोशल मीडिया पर मोदी ही मोदी छाये हुए थे। विरोधियों का मज़ाक उड़ाया जा रहा था। उन्हें निकम्मा, हिंदु विरोधी और देशद्रोही तक कहा जा रहा था। गरूर ऐसा कि भाजपा के मुखिया ने विरोधियों को सांप, नेवला, कुत्ता, बिल्ली आदि कहने में भी संकोच नहीं किया। मोदी ने पारंपरिक मीडिया पर भी प्रभावी अंकुश लगा रखा था। बाबा रामदेव की कंपनी पतंजलि के विज्ञापनों की बौछार में नहाया हुआ मीडिया अपना दिमाग गिरवी रख चुका था। ऐसे में कुछ हिम्मती लोगों ने झूठ का प्रतिकार आरंभ किया। छोटी-छोटी कोशिशें धीरे-धीरे परवान चढ़ने लगीं और झूठ-सच का अंतर सामने आने लगा। कई पत्रकारों ने आनलाइन समाचार पोर्टल शुरू किये और उन्होंने मोदी की राह पर चलने से इन्कार कर दिया। उन्हें बुरा-भला कहा जाने लगा लेकिन तूफान के बावजूद दिया जलता रहा। यह मोदी के प्रभामंडल की क्षीणता का प्रतीक है।

सहयोगियों की नाराज़गी, विभिन्न आंदोलनों और भाजपा के सामने दरपेश नई चुनौतियों का मिला-जुला परिणाम यह है कि मीडिया में ही नहीं, बल्कि भाजपा में भी यह सुगबुगाहट आम है कि मोदी के लिए सन् 2019 के चुनाव में 2014 को दोहराना संभव नहीं है। हां, यह सच है कि 2014 को दोहराना संभव नहीं है, पर क्या यह भी सच है कि मोदी इतने श्रीहीन हो गए हैं कि वे दोबारा सत्ता में न आ पायें? आइये, इसे समझने की कोशिश करते हैं।

कांग्रेस, सपा, बसपा, आरजेडी, टीडीपी और बीजेडी यदि मिल जाएं तो यह पक्का है कि भाजपा के लिए अपने दम पर बहुमत सपना हो जाएगा। अगर विपक्षियों के वोट न बंटें तो मोदी या शाह कुछ भी कह लें, कुछ भी कर लें, कितने ही फतवे दे लें, वे बहुमत नहीं ला सकते। देखना यह बाकी है कि विपक्षी दलों की एकजुटता का भविष्य क्या रहता है।

फिर भी यह सच है कि सारी चुनौतियों के बावजूद इस एक तथ्य को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता कि जिस तरह राज्यों में विपक्ष की जगह भाजपा की सरकार आने पर व्यवस्था में कोई ऐसा परिवर्तन नहीं आया कि जनता को राहत महसूस हो, वैसे ही गैर-भाजपा शासित राज्यों में भी शासन-प्रशासन में कोई ऐसा बदलाव देखने को नहीं मिलता कि उसमें और भाजपा शासित राज्यों में कोई अंतर नज़र आये। मोदी की विदेश यात्राओं की आलोचना भले ही हुई हो, लेकिन इस सच की उपेक्षा नहीं की जा सकती कि विश्व आज भारत को नई नज़रों से देखने लगा है।
कुछ प्रदेशों में गैर-भाजपा सत्तारूढ़ दलों का अपना प्रभाव है, इसी तरह सपा-बसपा के मिल जाने से उत्तर प्रदेश में भी भाजपा को नुकसान होगा, लेकिन ज्यादातर विपक्षी दलों के पास अपना कोई ऐसा विज़न नहीं है जो गवर्नेंस को प्रभावित करता हो।

कांग्रेस को बिलकुल भी पता नहीं है कि उसके पास जनता को देने के लिए क्या है? जबकि नरेंद्र मोदी नैरेटिव गढ़ने में माहिर हैं, उनके पास अकूत धन है, पूरी सरकारी मशीनरी है, मजबूत और सक्रिय संगठन है। धन-बल, जन-बल और कथन, यानी, नैरेटिव के बल पर वे लोगों का दिल जीत सकते हैं, सारी कमियों के बावजूद जीत सकते हैं, इसलिए प्रधानमंत्री मोदी को कम करके नहीं आंका जा सकता।

मोदी को दूसरी सुविधा यह है कि उनके पास अमित शाह जैसा सहयोगी है जिसकी नज़र बहुत बारीक है। मतदान की तैयारी के लिए अमित शाह का विश्लेषण और रणनीति बहुत सटीक होती है। मोदी शुरू से ही अमित शाह की दो खूबियों के मुरीद रहे हैं। पहली यह कि अमित शाह नंबर वन नहीं होना चाहते, वे मोदी को नहीं काटना चाहते, और दूसरी यह कि कोई भी काम करने से पहले वे उससे जुड़ी छोटी से छोटी बात पर भी ध्यान देते हैं। उनकी ही पार्टी के अन्य नेताओं में यह गुण दुर्लभ है, अन्य दलों के नेताओं में भी यह गुण बहुत कम देखने को मिलता है। इसलिए जनता की नाराज़गी के बावजूद मोदी मजबूत हैं।

मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद से ही भाजपा और संघ की ओर से एक संयुक्त अभियान चलाया जा रहा है। जब भी कभी किसी बड़ी चुनौती से सामना होता है तो जनता का ध्यान भटकाने के लिए कोई भड़काऊ बयान सामने आ जाता है या कोई अन्य घटना घटित हो जाती है और भाजपा के आईटी सेल की पूरी फौज, भक्तगण तथा पूरा मीडिया उस अप्रासंगिक बयान या घटना पर चर्चा आरंभ कर देते हैं ताकि चुनौतीपूर्ण मुद्दा गौण हो जाए। आज मतदाता की समस्या यह है कि उसके एक तरफ कुंआ है और दूसरी तरफ खाई, उसे अंधों में से काना राजा चुनना है। यह एक बड़ा फैक्टर है और मोदी अब इसी का लाभ लेने की जुगत में हैं।

लेखक पी. के. खुराना दो दशक तक इंडियन एक्सप्रेस, हिंदुस्तान टाइम्स, दैनिक जागरण, पंजाब केसरी और दिव्य हिमाचल आदि विभिन्न मीडिया घरानों में वरिष्ठ पदों पर रहे.

Sunday, April 8, 2018

युवाओं की नाराजगी मोदी को महंगी पड़ेगी

युवा क्रांति के, परिवर्तन के प्रतीक होते हैं, युवा खुशफहमियों को तोडऩे वाले होते हैं, सत्ता की ईंट से ईंट बजाने की शक्ति रखते हैं। शहीद भगत सिंह, खुदी राम बोस, तांत्या टोपे जैसे युवाओं ने अंग्रेजी शासन और गुलामी के प्रतीक अंग्रेजों के अहंकार और क्रूरता पर कील ठोंकी थी। सिर्फ इतना ही नहीं बल्कि गुलामी के खिलाफ युवाओं की फौज खड़ी की थी। आजाद भारत में भी कई उदाहरण हैं जिनमें युवाओं ने सत्ता को धूल चटाई है।

युवाओं की नाराजगी मोदी को महंगी पड़ेगी

युवा क्रांति के, परिवर्तन के प्रतीक होते हैं, युवा खुशफहमियों को तोडऩे वाले होते हैं, सत्ता की ईंट से ईंट बजाने की शक्ति रखते हैं। शहीद भगत सिंह, खुदी राम बोस, तांत्या टोपे जैसे युवाओं ने अंग्रेजी शासन और गुलामी के प्रतीक अंग्रेजों के अहंकार और क्रूरता पर कील ठोंकी थी। सिर्फ इतना ही नहीं बल्कि गुलामी के खिलाफ युवाओं की फौज खड़ी की थी। आजाद भारत में भी कई उदाहरण हैं जिनमें युवाओं ने सत्ता को धूल चटाई है। जयप्रकाश नारायण आंदोलन के कर्णधार युवा ही थे।
पहले यह बिहार आंदोलन के नाम से जाना जाता था। जय प्रकाश नारायण के नेतृत्व में युवाओं का आंदोलन बिहार से निकल कर देशव्यापी हुआ था। इंदिरा गांधी को आपातकाल की घोषणा करनी पड़ी थी, युवाओं के तेज से इंदिरा गांधी 1977 में सत्ता से बाहर हो गई थीं। यू.पी.ए.-2 की सरकार को सत्ता से बाहर करने में युवाओं की बड़ी भूमिका थी। अन्ना ने लोकपाल आंदोलन के माध्यम से युवाओं को भ्रष्टाचार और कदाचार तथा राजनीतिक सुधारों के लिए ललकारा था। खुद वर्तमान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने यू.पी.ए.-2 की सरकार को हराने के लिए युवाओं पर दाव लगाया था जिन्होंने कांग्रेस के भ्रष्टाचार, वंशवाद और तुष्टीकरण नीति के खिलाफ प्रहारक और संहारक की भूमिका निभाई थी।कांग्रेस को युवाओं की नाराजगी भारी पड़ी थी। युवाओं को जोडऩे और उन्हें आकॢषत करने में कांग्रेस आज भी असफल है। भारतीय राजनीति में युवाओं की भूमिका सर्वश्रेष्ठ होती है, इसलिए युवाओं की नाराजगी और उनसे रार लेना कोई राजनीतिक पार्टी नहीं चाहती। पर कभी-कभी अराजक और अहंकारी सत्ता युवाओं की नाराजगी मोल ले लेती है। भूल या फिर निष्क्रियतावश युवाओं से रार ले ही लेती है। युवा वर्ग एक बार फिर आंदोलित है, एक बार फिर सत्ता से टकराने के लिए सक्रिय है। यह चिंतनीय विषय है कि नरेन्द्र मोदी की केंन्द्रीय सत्ता के खिलाफ युवा क्यों आंदोलित हैं, क्यों धरना-प्रदर्शन कर रहे हैं? जो युवा नरेन्द्र मोदी को आईकॉन मानता था, वही युवा अब मोदी को अपने भविष्य का संहारक क्यों मानने लगा है? नरेन्द्र मोदी के लिए यह एक गंभीर प्रश्न है पर दुखद यह है कि इस प्रश्न की भयावहता और नुक्सान बारे अभी नरेन्द्र मोदी को मालूम नहीं है। नरेन्द्र मोदी का यह अहंकार उसी तरह का है जिस तरह का अहंकार सोनिया और मनमोहन को सत्ता के दौरान था। उनकी सत्ता के दौरान युवाओं का आक्रोश और आंदोलन धीरे-धीरे बढ़ रहा था तथा कांग्रेस के हित के खिलाफ खतरनाक हो रहा था, पर कांग्रेस और उनकी तत्कालीन सत्ता हाथ पर हाथ धरे बैठी थी। उसी प्रकार से नरेन्द्र मोदी भी उदासीन हैं। युवाओं को रोजगार के अवसर नहीं मिल रहे हैं, जो थे भी, वे भी आर्थिक मंदी, नोटबंदी और जी.एस.टी. की जटिलता में कम हो गए। रोजगार के क्षेत्र में नए अवसर कम हुए हैं, सरकारी नौकरियां पहले से ही न के बराबर हो गई हैं और निजी क्षेत्र में भी रोजगार सृजन के अवसर बन नहीं पा रहे हैं।नरेन्द्र मोदी ने स्किल्ड इंडिया योजना में हुंकार भरी थी कि इस योजना से देश के करोड़ों युवाओं को रोजगार मिलेगा, उन्हें अपना व्यापार खड़ा करने में बड़ी सहायता मिलेगी। मोदी की इस योजना ने आशा तो जगाई थी, पर विश्वास कायम नहीं हो पाया। वैसे इस योजना को सफल बनाने के लिए नरेन्द्र मोदी ने कोई कसर नहीं छोड़ी है, पर नौकरशाही के जाल के कारण जमीनी स्तर पर यह योजना पहुंचने में असफल हो गई, इसलिए इस योजना के तहत भी युवाओं को रोजगार नहीं मिल सके। कम से कम दो अवसर ऐसे आए हैं जिनमें युवाओं का आक्रोश स्पष्ट तौर पर प्रकट हुआ है। देश की राजधानी में हजारों युवाओं ने प्रधानमंत्री आवास जाने के लिए मार्च किया और सरेआम नरेन्द्र मोदी पर युवाओं के भविष्य के साथ खिलवाड़ करने का आरोप लगाया। युवा कई दिनों तक दिल्ली में प्रदर्शन कर डटे रहे।सी.बी.आई. जांच के आश्वासन के बाद युवाओं ने धरना-प्रदर्शन करना बंद कर दिया पर उनकी नाराजगी समाप्त नहीं हुई है। पहला अवसर एस.एस.सी. के प्रश्न पत्र लीक होने का है। युवाओं का आरोप है कि एस.एस.सी. के प्रवेश परीक्षा पत्र लीक हो जाते हैं, जिसके कारण गरीब और अध्ययनशील युवाओं को सरकारी नौकरियों में अवसर नहीं मिलता है। यह सही है कि कई सरकारी नौकरियां देने वाली परीक्षाओं के प्रश्न पत्र पहले ही लीक हो जाते हैं। युवाओं की मांग रही है कि केन्द्रीय कर्मचारी चयन आयोग को दुरुस्त करके युवाओं के भविष्य के साथ खिलवाड़ करने का अवसर नहीं दिया जाना चाहिए। युवाओं के आक्रोश को देखते हुए खुद गृहमंत्री राजनाथ सिंह को कूदना पड़ा था। उन्होंने एस.सी.एस. परीक्षा के लीक प्रश्न-पत्र के खिलाफ सी.बी.आई. जांच कराने की घोषणा की थी। फिर भी केन्द्रीय कर्मचारी चयन आयोग के खिलाफ छात्रों और युवाओं की नाराजगी कम नहीं हुई है।दूसरा अवसर सी.बी.एस.ई. के पेपर लीक होने का है। यह कांड लोमहर्षक है और छात्रों के भविष्य के साथ खिलवाड़ है। सबसे बड़ी बात यह है कि अब छात्रों को फिर से तैयारी करनी होगी, उनके होश उड़े हुए हैं। सी.बी.एस.ई. के परीक्षा प्रश्नपत्र लीक कांड के तार न सिर्फ दिल्ली बल्कि हरियाणा, बिहार और झारखंड से भी जुड़े हुए हैं। इस कांड पर मानव संसाधन मंत्री प्रकाश जावड़ेकर का कहना था कि सी.बी.एस.ई. के परीक्षा प्रश्न लीक होने से उनकी रात की नींद हराम हो गई है।प्रकाश जावड़ेकर का कथन यह साबित करता है कि प्रसंग कितना भयानक और नरेन्द्र मोदी सरकार के लिए संहारक है। नरेन्द्र मोदी सरकार भी पुराने ढर्रे पर चल रही है। भ्रष्टाचार और कदाचार पर लीपापोती का खेल जारी है। कांग्रेस सरकार के दौरान असली और जिम्मेदार अधिकारी दंडित होने की जगह पुरस्कार ग्रहण कर लेते थे, पर मोदी की सरकार में भी असली गुनहगारों की गर्दन नापी नहीं जा रही है। सी.बी.एस.ई. के परीक्षा प्रश्न पत्र लीक कांड को ही उदाहरण के रूप में लिया जा सकता है। इस कांड के लिए सी.बी.एस.ई. के अध्यक्ष और अन्य बड़े अधिकारियों की गर्दन नापी जानी चाहिए थी।अगर जिम्मेदार और बड़े अधिकारी चाक-चौबंद होते तो प्रश्नपत्र लीक होते ही नहीं। अब छोटे अधिकारियों को दंडित कर इस लोमहर्षक कांड पर पर्दा डाला जा रहा है। यह नहीं भूलना चाहिए कि इससे सिर्फ सी.बी.एस.ई. की परीक्षा देने वाले छात्र ही प्रभावित नहीं हो रहे हैं बल्कि उनके परिजन भी प्रभावित हो रहे हैं। नरेन्द्र मोदी युवाओं की नाराजगी और आक्रोश को कम करने की राजनीतिक प्रक्रिया चलाने में भी असफल रहे हैं। नरेन्द्र मोदी का अहंकार टूटना जरूरी है। अगर उनका अहंकार नहीं टूटा और युवाओं का आक्रोश इसी तरह बढ़ता रहा, एस.एस.सी. और सी.बी.एस.ई. जैसे कांड होते रहे तो फिर मोदी सरकार का पतन भी निश्चित है।