Monday, August 19, 2019

आरएसएस के हिंदूवादियों की सात शर्मनाक गलतियां, क्या देश कभी माफ कर सकेगा?

आरएसएस के हिंदूवादियों की सात शर्मनाक गलतियां, क्या देश कभी माफ कर सकेगा?

भारत के इतिहास में कई ऐसे पन्ने हैं जो हिंदू महासभा और आरएसएस के नाम पर कलंक के तौर पर दर्ज हैं. अपने मजबूत प्रचारतंत्र के बूते क्या संघ ये दाग धो पाएगा. पढ़िए क्या हैं संघ के वो सात कलंक.

1. भारत के विभाजन के विचार की नींव रखना
भारत विभाजन का समर्थन किया. विनायक दामोदर सावरकर. द्विराष्ट्र सिद्धांत के समर्थक थे जिन्ना और सावरकर दोनों चाहते थे कि एक हिंदू राष्ट्र बने और एक इस्लामिक राष्ट्र, कहा कि हिंदू और मुसलमान अलग देश हैं कभी साथ नहीं रह सकते. पहले सावरकर ये प्रस्ताव लेकर आए और इसके तीन साल बाद ही जिन्ना ने भी द्विराष्ट्र सिद्धांत का समर्थन किया. (हिंदू महासभा के 19वें अधिवेशन में सावरकर का भाषण, 1937) बाद में संघ ने भारत विभाजन का विरोध करने वाले गांधी की हत्या करके उन्हें ही विभाजन का दोषी ठहराने के लिए दुष्प्रचार किया गया. इतिहासकार कहते हैं कि संघ ने उग्र हिंदू वातावरण न बनाया होता तो शायद जिन्ना अलग राष्ट्र नहीं मांगते.
सावरकर और जिन्ना दोनों चाहते थे कि एक हिंदू राष्ट्र बने और एक इस्लामिक राष्ट्र

2. आर्मी को तोड़ने की साजिश
भारत के खिलाफ साजिश. देश के आजाद होने के तीसरे साल ही संघ ने एक साजिश रची. आर्मी चीफ जनरल करिअप्पा को कत्ल करने की साजिश. संघ ने पहले उत्तर भारत और दक्षिण भारत का ध्रुवीकरण किया फिर कुछ सिख युवकों को भड़काकर करिअप्पा की हत्या की कोशिश की. मामले में 6 लोगों को सजा हुई थी (स्रोत - 2017 में रिलीज हुए सीआईए के डिक्लासिफाइड किए गए दस्तावेज़)
1950 में रची गई थी जनरल करियप्पा की हत्या की साजिश

3. नेताजी सुभाष चंद्र बोस से गद्दारी
जब भारत की आजादी के लिए नेता जी सुभाषचंद्र बोस जापान की मदद लेने गए थे तो संघ ने अंग्रेजों का साथ दिया. हिंदू महासभा ने ‘वीर’ सावरकर के नेतृत्व में ब्रिटिश फौजों में भर्ती के लिए शिविर लगाए. हिंदुत्ववादियों ने अंग्रेज शासकों के समक्ष मुकम्मल समर्पण कर दिया था जो ‘वीर’ सावरकर के निम्न वक्तव्य से और भी साफ हो जाता है-
‘जहां तक भारत की सुरक्षा का सवाल है, हिंदू समाज को भारत सरकार के युद्ध संबंधी प्रयासों में सहानुभूतिपूर्ण सहयोग की भावना से बेहिचक जुड़ जाना चाहिए जब तक यह हिंदू हितों के फायदे में हो. हिंदुओं को बड़ी संख्या में थल सेना, नौसेना और वायुसेना में शामिल होना चाहिए और सभी आयुध, गोला-बारूद, और जंग का सामान बनाने वाले कारखानों वगैरह में प्रवेश करना चाहिए…'
गौरतलब है कि युद्ध में जापान के कूदने के कारण हम ब्रिटेन के शत्रुओं के हमलों के सीधे निशाने पर आ गए हैं. इसलिए हम चाहें या न चाहें, हमें युद्ध के कहर से अपने परिवार और घर को बचाना है और यह भारत की सुरक्षा के सरकारी युद्ध प्रयासों को ताकत पहुंचा कर ही किया जा सकता है. इसलिए हिंदू महासभाइयों को खासकर बंगाल और असम के प्रांतों में, जितना असरदार तरीके से संभव हो, हिंदुओं को अविलंब सेनाओं में भर्ती होने के लिए प्रेरित करना चाहिए’ (स्रोत- वीर सावरकर समग्र वांड्मय)

4. महात्मा गांधी की हत्या
आरएसएस ने की या नहीं इसको लेकर विवाद है. गांधी के मारे जाने को वो सही तो मानते रहे हैं लेकिन हत्या की साजिश से इनकार करते हैं. लेकिन यहां कुछ जानकारियां हैं जो कहती हैं कि गांधी को मारने के पीछे संघ था. गांधी जी की हत्या के मामले में आठ आरोपी थे– नाथूराम गोडसे और उनके भाई गोपाल गोडसे, नारायण आप्टे, विष्णु करकरे, मदनलाल पाहवा, शंकर किष्टैया, विनायक दामोदर सावरकर और दत्तात्रेय परचुरे. इस गुट का नौवां सदस्य दिगंबर रामचंद्र बडगे था जो सरकारी गवाह बन गया था. ये सब आरएसएस या हिंदू महासभा या हिंदू राष्ट्र दल से जुडे हुए थे. अदालत में दी गई बडगे की गवाही के आधार पर ही सावरकर का नाम इस मामले से जुड़ा था और गांधी की हत्या के बाद हिंदू महासभा और आरएसएस पर प्रतिबंध लग गया था. यानी गांधी की हत्या में संघ को क्लीन चिट नहीं दी जा सकती.
अगर गांधी दस साल और रहते तो देश में सिद्धांत की राजनीति मजबूत होती. सालों तक स्वतंत्रता सेनानियों पर जुल्म ढाने वाली अफसरशाही ने आजाद होते ही राजनीति को प्रलोभन देने शुरू कर दिए कि कहीं नेता उनसे बदला न लें. ये प्रलोभन बाद में करप्शन में बदल गए. गांधी होते तो देश करप्ट नहीं होता. वो देश को सैद्धांतिक राजनीति में पाग कर जाते. कपूर कमीशन की रिपोर्ट ने भी गांधी की हत्या में हिंदूवादियों का ही हाथ बताया था.

5. नमक सत्याग्रह का विरोध
आरएसएस द्वारा प्रकाशित की गई हेडगेवार की जीवनी के मुताबिक, जब गांधी ने 1930 में अपना नमक सत्याग्रह शुरू किया, तब उन्होंने (हेडगेवार ने) ‘हर जगह यह सूचना भेजी कि संघ इस सत्याग्रह में शामिल नहीं होगा. हालांकि, जो लोग व्यक्तिगत तौर पर इसमें शामिल होना चाहते हैं, उनके लिए ऐसा करने से कोई रोक नहीं है. इसका मतलब यह था कि संघ का कोई भी जिम्मेदार कार्यकर्ता इस सत्याग्रह में शामिल नहीं हो सकता था’.
वैसे तो, संघ के कार्यकर्ताओं में इस ऐतिहासिक घटना में शामिल होने के लिए उत्साह की कमी नहीं थी, लेकिन हेडगेवार ने सक्रिय रूप से इस उत्साह पर पानी डालने का काम किया.

6. भारत छोड़ो आंदोलन का विरोध
भारत छोड़ो आंदोलन शुरू होने के डेढ़ साल बाद, ब्रिटिश राज की बॉम्बे सरकार ने एक मेमो में बेहद संतुष्टि के साथ नोट किया कि ‘संघ ने पूरी ईमानदारी के साथ खुद को कानून के दायरे में रखा है. खासतौर पर अगस्त, 1942 में भड़की अशांति में यह शामिल नहीं हुआ है.’
आरएसएस नेतृत्व के पास आजादी की लड़ाई में शामिल न होने की एक विचित्र वजह थी. जून, 1942 में बंगाल में अंग्रेजों द्वारा निर्मित अकाल, जिसमें कम से कम 30 लाख लोग मारे गए, इस घटना से कुछ महीने पहले दिए गए अपने एक भाषण में गोलवलकर ने कहा था-
'संघ समाज की वर्तमान बदहाली के लिए किसी को भी दोष नहीं देना चाहता. जब लोग दूसरों पर आरोप लगाना शुरू करते हैं तो इसका मतलब होता है कि कमज़ोरी मूल रूप से उनमें ही है. कमज़ोरों के साथ किए गए अन्याय के लिए ताकतवर पर दोष मढ़ना बेकार है. संघ अपना कीमती वक्त दूसरों की आलोचना करने या उनकी बुराई करने में नष्ट नहीं करना चाहता. अगर हमें पता है कि बड़ी मछली छोटी मछली को खाती है, तो इसके लिए बड़ी मछली को दोष देना पूरी तरह पागलपन है. प्रकृति का नियम, भले ही वह अच्छा हो या खराब, हमेशा सच होता है. इस नियम को अन्यायपूर्ण करार देने से नियम नहीं बदल जाता.'
यहां तक कि मार्च, 1947 में जब अंग्रेज़ों ने आखिरकार एक साल पहले हुए नौसेनिक विद्रोह के बाद भारत छोड़कर जाने का फैसला कर लिया था, गोलवलकर ने आरएसएस के उन कार्यकर्ताओं की आलोचना जारी रखी, जिन्होंने भारत के स्वतंत्रता संघर्ष में हिस्सा लिया था.

7. आजादी के बाद का ‘देशद्रोह’
भारत की आजादी के उपलक्ष्य में आरएसएस के मुखपत्र ‘द ऑर्गेनाइजर’ में प्रकाशित संपादकीय में संघ ने भारत के तिरंगे झंडे का विरोध किया था, और यह घोषणा की थी कि ‘‘हिंदू इस झंडे को न कभी अपनाएंगे, न कभी इसका सम्मान करेंगे.’’ बात को स्पष्ट करते हुए संपादकीय में कहा गया कि ‘‘ये ‘तीन’ शब्द ही अपने आप में अनिष्टकारी है और तीन रंगों वाला झंडा निश्चित तौर पर खराब मनोवैज्ञानिक प्रभाव डालेगा और यह देश के लिए हानिकारक साबित होगा.’’

Thursday, August 8, 2019

मोदी-शाह ने क्या कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाकर गलत किया?

भारत सरकार ने जम्मू-कश्मीर से आर्टिकल 370 को हटा दिया है. आम आदमी से लेकर सेलेब्स तक ने इसे एक ऐतिहासिक फैसला बताया. वहीं कश्मीर के कथित रहनुमा कश्मीर के लोगों को यह कहकर बरगलाने की कोशिश करेंगे कि अनुच्छेद 370 हटने से कश्मीरियत खत्म हो जाएगी.समझदार मुसलमान भाइयो और कश्मीरियों के लिए लिख रहा हूं. आमतौर पर हर सिक्के के दो पहलू होते हैं और तुम सिर्फ अभी एक पर फोकस कर रहे हो. कुछ पॉइंट्स में अपनी बात रखता हूं.
1. गोआ को भारत ने 1961 में सिर्फ 2 दिन में आज़ाद कराया. आज कोई दिक्कत है वहां?
2. उसके साथ दमन दीव नागर दादर हवेली भी आज़ाद हुए कोई दिक्कत है वहां?
3. हैदराबाद भी मिलाया गया कोई दिक्कत है वहां? और इन सब जगहों पर पावर का इस्तेमाल किया गया था, मतलब ताक़त से जीता था, क्या उनके साथ कोई अन्याय हुआ?
4. जूनागढ़ वगैरह में भी सब ठीक है और ये आप भी जानते हो.

अब यही कहना है कि कश्मीर के मामले में तो फिर भी संवैधानिक तरीका इस्तेमाल किया गया है. तो क्या गलत करेंगे हम तुम? अब ये भी समझो कि नेपोलियन के बाद जर्मनी में 300 ऐसी ही रियासतें थीं जो एक साथ आई तो जर्मनी सुपर पावर बना और वहां आज भी कोई दिक्कत नही.

मतलब सब ठीक ही है और होगा भी. अब सवाल ये की क्या ये जरूरी था? तो सुनों अगर ऐसा नही होता तो कश्मीर की वो लोकेशन है कि उसको साथ रखना उतना ही जरूरी है जितना बॉर्डर पर बीएसएफ के होना.
दूसरा यू एन ओ में जो तय हुआ था कबायली हमले के बाद में तो वो ये था के दोनों देश सेना हटाये और फिर जनमतसंग्रह यू एन कराएगा. पर पाकिस्तान ने पीओके छोड़ने से इनकार किया. वो फौज नहीं हटेगी तो हम कैसे हट जाते? हमला उनका था 60 परसेंट कश्मीर पीओके बन गया है, कैसे हट जाते? कबायलियों ने जो उस वक़्त नरसंहार किया पीओके में वो दहला देगा पढ़कर देखो.
अब सवाल ये की क्या हम यूएन के जनमतसंग्रह का इंतज़ार करते? किया पूरे 70 साल किया. कश्मीर में किसी राज्य के किसी आदमी को नहीं बसने दिया, पर पाकिस्तान ने क्या किया पीओके की पूरी आबादी का 60 फीसदी पाकिस्तानियों से बदल दिया. अब कैसे होगा जनमतसंग्रह? और कश्मीर में 370 और 35 का फायदा किसे हो रहा था, ऐसा नहीं हो सकता आपको पता न हो.
तो जो हुआ वो बनता है. कश्मीरी पंडित क्यों नहीं टिके जन्नत में, सिर्फ इसलिए कि वो माइनॉरिटी थे वहां और बहुत अमीर थे? रोना सिर्फ कुछ अलगाववादियों का बनता है, और वो रोयेंगे ही. दुकान उनकी लूटी है. पर कुछ लोग इसको ऐसे दिख रहे हैं जैसे इस्लाम खतरे में हो.
आखिरी बात कश्मीर में हमारा काम से कम महाराजा हरि सिंह से कोई विलय का एग्रीमेंट तो था. बलूचिस्तान का क्या? वो मुसलमान नहीं? पाकिस्तान का वह कब्ज़ा और कश्मीर में आज़ादी की लड़ाई? वाह! और पाकिस्तान अगर मुसलमानों का इतना बाद दोस्त है तो वो चीन के उइगेर मुसलमानों की बात क्यों नहीं करता जहां वो दाढ़ी भी नहीं रख सकते, न खुले में नमाज़ पढ़ सकते हैं. सोचना आपको जवाब मिल जाएगा.
(यह मेरा निजी विचार हैं)
www.ankitjmd.blogspot.com#MySarkariResult .in

Tuesday, August 6, 2019

Jammu kasmir me hi nhi in rajyo me bhi nhi kharid skte aap jameen || जम्मू कश्मीर में ही नहीं बल्कि भारत के इन राज्यों में भी आप नहीं खरीद सकते कोई भी संपत्ति।

जम्मू कश्मीर में ही नहीं बल्कि भारत के इन राज्यों में भी आप नहीं खरीद सकते कोई भी संपत्ति।

Jammu kasmir me hi nhi in rajyo me bhi nhi kharid skte aap jameen

जम्मू कश्मीर से धारा 370 हटाने के बाद अब वहां पर कोई भी जमीन या संपत्ति खरीद सकते हैं।
लेकिन जम्मू-कश्मीर के अलावा भी भारत की कई राज्य ऐसे हैं जहां पर आप जमीन नहीं खरीद सकते।
हिमाचल प्रदेश :- यदि आप हिमाचल प्रदेश की निवासी नहीं है तो वहां पर जाकर आप कोई भी संपत्ति या मकान नहीं खरीद सकते यहां तक कि गैर कृषक हिमाचली भी जमीन नहीं खरीद सकते हैं, भले उनके पास हिमाचल का राशन कार्ड क्यों न हो। साल 1972 के भूमि मुजारा कानून की धारा 118 प्रभाव में आई थी, जिसके तहत कोई भी गैर-कृषक अथवा बाहरी निवासी हिमाचल प्रदेश में जमीन नहीं खरीद सकता है।
नार्थ ईस्ट के राज्य :- नॉर्थ ईस्ट के कई राज्य ऐसे हैं जहां पर कोई भी भारतीय लोगों के जाकर अपनी जमीन नहीं खरीद सकते हो इसमें नागालैंड मिजोरम सिक्किम अरुणाचल प्रदेश मेघालय इन प्रदेशों में जाकर आप वहां पर कोई भी सार्वजनिक संपत्ति या फिर जमीन नहीं खरीद सकते।
सिक्किम में केवल सिक्किम के निवासियों को ही जमीन खरीदने की अनुमति है। भारत के संविधान का अनुच्छेद 371एफ, जो सिक्किम को विशेष प्रावधान प्रदान करता है, बाहरी लोगों को शामिल भूमि या संपत्ति की बिक्री और खरीद पर प्रतिबंध लगाता है। इसके अतिरिक्त राज्य के जनजातीय क्षेत्रों में केवल आदिवासी ही भूमि और संपत्ति खरीद सकते हैं।
जम्मू कश्मीर जैसा ही नागालैंड के पास में एक विशेष प्रावधान है 1963 में राज्य बनने के साथ ही विशेष अधिकार के रूप में आर्टिकल 371 (A) का प्रावधान मिला था। इसमें ऐसे कई मामले में जिसमे दखल नहीं दिया जा सकता है।
धार्मिक और सामाजिक गतिविधियां,नगा संप्रदाय के कानून, नगा कानूनों के आधार पर नागरिक और आपराधिक मामलों में न्याय,जमीन का स्वामित्व और खरीद-फरोख्त।