Sunday, November 10, 2019

Jaunpur

Jaunpur stands pretty in the south-eastern part of Uttar Pradesh .

The district lies at a global location of 82.44° east longitude and 25.46° north latitude.

Jaunpur falls under the Varanasi Division of Uttar Pradesh. It covers a total area of 4,038sq.km.

The population in the district of Jaunpur is 44,76,072. The headquarters is located in Jaunpur.

Facts of Jaunpur District
State Uttar Pradesh
District Jaunpur
District HQ Jaunpur
Population (2011) 4494204
Growth 14.89%
Sex Ratio 1024
Literacy 71.55
Area (km 2) 4038
Density (/km 2) 1108

Tehsils Badlapur, Jaunpur, Kerakat, Machhlishahr, Mariahu, Shahganj
Lok Sabha Constituencies Jaunpur, Machhlishahr
Assembly Constituencies Badalpur, Jaunpur, Kerakat, Machhlishahr, Malhani, Mariyahu, Mungra Badshahpur, Shahganj, Zafrabad
Languages Hindi, Urdu
Rivers Gomti, Sai
Lat-Long 25.725684,82.687797
Travel Destinations Shahi Qila, Main Gate, Atala Mosque, Jhanjhari Mosque, Lal Darwaza Mosque, Jama Mosque, Shahi Pul, Kali Temple, Gasuri Shankar Temple, Hanuman Temple, Kabir Math, Gomteshwar Mahadev etc.
Government Colleges/Universities Veer Bahadur Singh Purvanchal University, T D College etc.

Saturday, November 9, 2019

Ayodhya Verdict: सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फ़ैसले की बड़ी बातें

Ayodhya Verdict:
अयोध्या में राम जन्मभूमि और बाबरी मस्जिद ज़मीन विवाद मामले में सुप्रीम कोर्ट के चीफ़ जस्टिस रंजन गोगोई ने फ़ैसला सुना दिया है. 40 दिनों तक चली सुनवाई के बाद शनिवार को इस दशकों पुराने मामले में पांच जजों की बेंच ने सर्वसम्मति से अपना फ़ैसला दिया.
इस फ़ैसले की अहम बातें

जहां पर बाबरी मस्जिद के गुंबद थे वो जगह हिन्दू पक्ष को मिली.

अदालत ने कहा कि सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड को मस्जिद बनाने के लिए पाँच एकड़ अलग उपयुक्त ज़मीन दी जाए.

ज़मीन पर हिंदुओं का दावा उचित है. सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को तीन महीने के भीतर अयोध्या पर एक कार्ययोजना तैयार करने का कहा है.

पक्षकार गोपाल विशारद को मिला पूजा-पाठ का अधिकार.

कोर्ट ने कहा है कि बनायी गई ट्रस्ट में निर्मोही अखाड़े को शामिल करना है या नहीं ये फ़ैसला केंद्र सरकार करेगी.

आस्था के आधार पर मालिकाना हक़ नहीं दिया जा सकता.

निर्मोही अखाड़ा का दावा खारिज.

बाबरी मस्जिद के नीचे एक संरचना पाई गई है जो मूलतः इस्लामी नहीं थी. विवादित भूमि पर अपने फ़ैसले में मुख्य न्यायाधीश जस्टिस रंजन गोगोई ने कहा कि पुरातत्व विज्ञान को नकारा नहीं जा सकता.
अंदर के चबूतरे पर कब्ज़े को लेकर गंभीर विवाद रहा है. 1528 से 1556 के बीच मुसलमानों ने वहां नमाज़ पढ़े जाने का कोई सबूत पेश नहीं किया गया.

बाहरी चबूतरे पर मुसलमानों का क़ब्ज़ा कभी नहीं रहा. 6 दिसंबर की घटना से यथास्थिति टूट गई.
सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड इस स्थान के इस्तेमाल का सबूत नहीं दे पाया.

बाहरी चबूतरे पर हमेशा से हिन्दुओं का क़ब्ज़ा रहा. ऐतिहासिक यात्रा वृतांतों को भी ध्यान में रखा गया है.
ऐतिहासिक यात्रा वृतांत बताते हैं कि सदियों से मान्यता रही है कि अयोध्या ही राम का जन्मस्थान है.
हिन्दुओं की इस आस्था को लेकर कोई विवाद नहीं है. आस्था उसे मानने वाले व्यक्ति की निजी भावना है.

Monday, August 19, 2019

आरएसएस के हिंदूवादियों की सात शर्मनाक गलतियां, क्या देश कभी माफ कर सकेगा?

आरएसएस के हिंदूवादियों की सात शर्मनाक गलतियां, क्या देश कभी माफ कर सकेगा?

भारत के इतिहास में कई ऐसे पन्ने हैं जो हिंदू महासभा और आरएसएस के नाम पर कलंक के तौर पर दर्ज हैं. अपने मजबूत प्रचारतंत्र के बूते क्या संघ ये दाग धो पाएगा. पढ़िए क्या हैं संघ के वो सात कलंक.

1. भारत के विभाजन के विचार की नींव रखना
भारत विभाजन का समर्थन किया. विनायक दामोदर सावरकर. द्विराष्ट्र सिद्धांत के समर्थक थे जिन्ना और सावरकर दोनों चाहते थे कि एक हिंदू राष्ट्र बने और एक इस्लामिक राष्ट्र, कहा कि हिंदू और मुसलमान अलग देश हैं कभी साथ नहीं रह सकते. पहले सावरकर ये प्रस्ताव लेकर आए और इसके तीन साल बाद ही जिन्ना ने भी द्विराष्ट्र सिद्धांत का समर्थन किया. (हिंदू महासभा के 19वें अधिवेशन में सावरकर का भाषण, 1937) बाद में संघ ने भारत विभाजन का विरोध करने वाले गांधी की हत्या करके उन्हें ही विभाजन का दोषी ठहराने के लिए दुष्प्रचार किया गया. इतिहासकार कहते हैं कि संघ ने उग्र हिंदू वातावरण न बनाया होता तो शायद जिन्ना अलग राष्ट्र नहीं मांगते.
सावरकर और जिन्ना दोनों चाहते थे कि एक हिंदू राष्ट्र बने और एक इस्लामिक राष्ट्र

2. आर्मी को तोड़ने की साजिश
भारत के खिलाफ साजिश. देश के आजाद होने के तीसरे साल ही संघ ने एक साजिश रची. आर्मी चीफ जनरल करिअप्पा को कत्ल करने की साजिश. संघ ने पहले उत्तर भारत और दक्षिण भारत का ध्रुवीकरण किया फिर कुछ सिख युवकों को भड़काकर करिअप्पा की हत्या की कोशिश की. मामले में 6 लोगों को सजा हुई थी (स्रोत - 2017 में रिलीज हुए सीआईए के डिक्लासिफाइड किए गए दस्तावेज़)
1950 में रची गई थी जनरल करियप्पा की हत्या की साजिश

3. नेताजी सुभाष चंद्र बोस से गद्दारी
जब भारत की आजादी के लिए नेता जी सुभाषचंद्र बोस जापान की मदद लेने गए थे तो संघ ने अंग्रेजों का साथ दिया. हिंदू महासभा ने ‘वीर’ सावरकर के नेतृत्व में ब्रिटिश फौजों में भर्ती के लिए शिविर लगाए. हिंदुत्ववादियों ने अंग्रेज शासकों के समक्ष मुकम्मल समर्पण कर दिया था जो ‘वीर’ सावरकर के निम्न वक्तव्य से और भी साफ हो जाता है-
‘जहां तक भारत की सुरक्षा का सवाल है, हिंदू समाज को भारत सरकार के युद्ध संबंधी प्रयासों में सहानुभूतिपूर्ण सहयोग की भावना से बेहिचक जुड़ जाना चाहिए जब तक यह हिंदू हितों के फायदे में हो. हिंदुओं को बड़ी संख्या में थल सेना, नौसेना और वायुसेना में शामिल होना चाहिए और सभी आयुध, गोला-बारूद, और जंग का सामान बनाने वाले कारखानों वगैरह में प्रवेश करना चाहिए…'
गौरतलब है कि युद्ध में जापान के कूदने के कारण हम ब्रिटेन के शत्रुओं के हमलों के सीधे निशाने पर आ गए हैं. इसलिए हम चाहें या न चाहें, हमें युद्ध के कहर से अपने परिवार और घर को बचाना है और यह भारत की सुरक्षा के सरकारी युद्ध प्रयासों को ताकत पहुंचा कर ही किया जा सकता है. इसलिए हिंदू महासभाइयों को खासकर बंगाल और असम के प्रांतों में, जितना असरदार तरीके से संभव हो, हिंदुओं को अविलंब सेनाओं में भर्ती होने के लिए प्रेरित करना चाहिए’ (स्रोत- वीर सावरकर समग्र वांड्मय)

4. महात्मा गांधी की हत्या
आरएसएस ने की या नहीं इसको लेकर विवाद है. गांधी के मारे जाने को वो सही तो मानते रहे हैं लेकिन हत्या की साजिश से इनकार करते हैं. लेकिन यहां कुछ जानकारियां हैं जो कहती हैं कि गांधी को मारने के पीछे संघ था. गांधी जी की हत्या के मामले में आठ आरोपी थे– नाथूराम गोडसे और उनके भाई गोपाल गोडसे, नारायण आप्टे, विष्णु करकरे, मदनलाल पाहवा, शंकर किष्टैया, विनायक दामोदर सावरकर और दत्तात्रेय परचुरे. इस गुट का नौवां सदस्य दिगंबर रामचंद्र बडगे था जो सरकारी गवाह बन गया था. ये सब आरएसएस या हिंदू महासभा या हिंदू राष्ट्र दल से जुडे हुए थे. अदालत में दी गई बडगे की गवाही के आधार पर ही सावरकर का नाम इस मामले से जुड़ा था और गांधी की हत्या के बाद हिंदू महासभा और आरएसएस पर प्रतिबंध लग गया था. यानी गांधी की हत्या में संघ को क्लीन चिट नहीं दी जा सकती.
अगर गांधी दस साल और रहते तो देश में सिद्धांत की राजनीति मजबूत होती. सालों तक स्वतंत्रता सेनानियों पर जुल्म ढाने वाली अफसरशाही ने आजाद होते ही राजनीति को प्रलोभन देने शुरू कर दिए कि कहीं नेता उनसे बदला न लें. ये प्रलोभन बाद में करप्शन में बदल गए. गांधी होते तो देश करप्ट नहीं होता. वो देश को सैद्धांतिक राजनीति में पाग कर जाते. कपूर कमीशन की रिपोर्ट ने भी गांधी की हत्या में हिंदूवादियों का ही हाथ बताया था.

5. नमक सत्याग्रह का विरोध
आरएसएस द्वारा प्रकाशित की गई हेडगेवार की जीवनी के मुताबिक, जब गांधी ने 1930 में अपना नमक सत्याग्रह शुरू किया, तब उन्होंने (हेडगेवार ने) ‘हर जगह यह सूचना भेजी कि संघ इस सत्याग्रह में शामिल नहीं होगा. हालांकि, जो लोग व्यक्तिगत तौर पर इसमें शामिल होना चाहते हैं, उनके लिए ऐसा करने से कोई रोक नहीं है. इसका मतलब यह था कि संघ का कोई भी जिम्मेदार कार्यकर्ता इस सत्याग्रह में शामिल नहीं हो सकता था’.
वैसे तो, संघ के कार्यकर्ताओं में इस ऐतिहासिक घटना में शामिल होने के लिए उत्साह की कमी नहीं थी, लेकिन हेडगेवार ने सक्रिय रूप से इस उत्साह पर पानी डालने का काम किया.

6. भारत छोड़ो आंदोलन का विरोध
भारत छोड़ो आंदोलन शुरू होने के डेढ़ साल बाद, ब्रिटिश राज की बॉम्बे सरकार ने एक मेमो में बेहद संतुष्टि के साथ नोट किया कि ‘संघ ने पूरी ईमानदारी के साथ खुद को कानून के दायरे में रखा है. खासतौर पर अगस्त, 1942 में भड़की अशांति में यह शामिल नहीं हुआ है.’
आरएसएस नेतृत्व के पास आजादी की लड़ाई में शामिल न होने की एक विचित्र वजह थी. जून, 1942 में बंगाल में अंग्रेजों द्वारा निर्मित अकाल, जिसमें कम से कम 30 लाख लोग मारे गए, इस घटना से कुछ महीने पहले दिए गए अपने एक भाषण में गोलवलकर ने कहा था-
'संघ समाज की वर्तमान बदहाली के लिए किसी को भी दोष नहीं देना चाहता. जब लोग दूसरों पर आरोप लगाना शुरू करते हैं तो इसका मतलब होता है कि कमज़ोरी मूल रूप से उनमें ही है. कमज़ोरों के साथ किए गए अन्याय के लिए ताकतवर पर दोष मढ़ना बेकार है. संघ अपना कीमती वक्त दूसरों की आलोचना करने या उनकी बुराई करने में नष्ट नहीं करना चाहता. अगर हमें पता है कि बड़ी मछली छोटी मछली को खाती है, तो इसके लिए बड़ी मछली को दोष देना पूरी तरह पागलपन है. प्रकृति का नियम, भले ही वह अच्छा हो या खराब, हमेशा सच होता है. इस नियम को अन्यायपूर्ण करार देने से नियम नहीं बदल जाता.'
यहां तक कि मार्च, 1947 में जब अंग्रेज़ों ने आखिरकार एक साल पहले हुए नौसेनिक विद्रोह के बाद भारत छोड़कर जाने का फैसला कर लिया था, गोलवलकर ने आरएसएस के उन कार्यकर्ताओं की आलोचना जारी रखी, जिन्होंने भारत के स्वतंत्रता संघर्ष में हिस्सा लिया था.

7. आजादी के बाद का ‘देशद्रोह’
भारत की आजादी के उपलक्ष्य में आरएसएस के मुखपत्र ‘द ऑर्गेनाइजर’ में प्रकाशित संपादकीय में संघ ने भारत के तिरंगे झंडे का विरोध किया था, और यह घोषणा की थी कि ‘‘हिंदू इस झंडे को न कभी अपनाएंगे, न कभी इसका सम्मान करेंगे.’’ बात को स्पष्ट करते हुए संपादकीय में कहा गया कि ‘‘ये ‘तीन’ शब्द ही अपने आप में अनिष्टकारी है और तीन रंगों वाला झंडा निश्चित तौर पर खराब मनोवैज्ञानिक प्रभाव डालेगा और यह देश के लिए हानिकारक साबित होगा.’’

Thursday, August 8, 2019

मोदी-शाह ने क्या कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाकर गलत किया?

भारत सरकार ने जम्मू-कश्मीर से आर्टिकल 370 को हटा दिया है. आम आदमी से लेकर सेलेब्स तक ने इसे एक ऐतिहासिक फैसला बताया. वहीं कश्मीर के कथित रहनुमा कश्मीर के लोगों को यह कहकर बरगलाने की कोशिश करेंगे कि अनुच्छेद 370 हटने से कश्मीरियत खत्म हो जाएगी.समझदार मुसलमान भाइयो और कश्मीरियों के लिए लिख रहा हूं. आमतौर पर हर सिक्के के दो पहलू होते हैं और तुम सिर्फ अभी एक पर फोकस कर रहे हो. कुछ पॉइंट्स में अपनी बात रखता हूं.
1. गोआ को भारत ने 1961 में सिर्फ 2 दिन में आज़ाद कराया. आज कोई दिक्कत है वहां?
2. उसके साथ दमन दीव नागर दादर हवेली भी आज़ाद हुए कोई दिक्कत है वहां?
3. हैदराबाद भी मिलाया गया कोई दिक्कत है वहां? और इन सब जगहों पर पावर का इस्तेमाल किया गया था, मतलब ताक़त से जीता था, क्या उनके साथ कोई अन्याय हुआ?
4. जूनागढ़ वगैरह में भी सब ठीक है और ये आप भी जानते हो.

अब यही कहना है कि कश्मीर के मामले में तो फिर भी संवैधानिक तरीका इस्तेमाल किया गया है. तो क्या गलत करेंगे हम तुम? अब ये भी समझो कि नेपोलियन के बाद जर्मनी में 300 ऐसी ही रियासतें थीं जो एक साथ आई तो जर्मनी सुपर पावर बना और वहां आज भी कोई दिक्कत नही.

मतलब सब ठीक ही है और होगा भी. अब सवाल ये की क्या ये जरूरी था? तो सुनों अगर ऐसा नही होता तो कश्मीर की वो लोकेशन है कि उसको साथ रखना उतना ही जरूरी है जितना बॉर्डर पर बीएसएफ के होना.
दूसरा यू एन ओ में जो तय हुआ था कबायली हमले के बाद में तो वो ये था के दोनों देश सेना हटाये और फिर जनमतसंग्रह यू एन कराएगा. पर पाकिस्तान ने पीओके छोड़ने से इनकार किया. वो फौज नहीं हटेगी तो हम कैसे हट जाते? हमला उनका था 60 परसेंट कश्मीर पीओके बन गया है, कैसे हट जाते? कबायलियों ने जो उस वक़्त नरसंहार किया पीओके में वो दहला देगा पढ़कर देखो.
अब सवाल ये की क्या हम यूएन के जनमतसंग्रह का इंतज़ार करते? किया पूरे 70 साल किया. कश्मीर में किसी राज्य के किसी आदमी को नहीं बसने दिया, पर पाकिस्तान ने क्या किया पीओके की पूरी आबादी का 60 फीसदी पाकिस्तानियों से बदल दिया. अब कैसे होगा जनमतसंग्रह? और कश्मीर में 370 और 35 का फायदा किसे हो रहा था, ऐसा नहीं हो सकता आपको पता न हो.
तो जो हुआ वो बनता है. कश्मीरी पंडित क्यों नहीं टिके जन्नत में, सिर्फ इसलिए कि वो माइनॉरिटी थे वहां और बहुत अमीर थे? रोना सिर्फ कुछ अलगाववादियों का बनता है, और वो रोयेंगे ही. दुकान उनकी लूटी है. पर कुछ लोग इसको ऐसे दिख रहे हैं जैसे इस्लाम खतरे में हो.
आखिरी बात कश्मीर में हमारा काम से कम महाराजा हरि सिंह से कोई विलय का एग्रीमेंट तो था. बलूचिस्तान का क्या? वो मुसलमान नहीं? पाकिस्तान का वह कब्ज़ा और कश्मीर में आज़ादी की लड़ाई? वाह! और पाकिस्तान अगर मुसलमानों का इतना बाद दोस्त है तो वो चीन के उइगेर मुसलमानों की बात क्यों नहीं करता जहां वो दाढ़ी भी नहीं रख सकते, न खुले में नमाज़ पढ़ सकते हैं. सोचना आपको जवाब मिल जाएगा.
(यह मेरा निजी विचार हैं)
www.ankitjmd.blogspot.com#MySarkariResult .in

Tuesday, August 6, 2019

Jammu kasmir me hi nhi in rajyo me bhi nhi kharid skte aap jameen || जम्मू कश्मीर में ही नहीं बल्कि भारत के इन राज्यों में भी आप नहीं खरीद सकते कोई भी संपत्ति।

जम्मू कश्मीर में ही नहीं बल्कि भारत के इन राज्यों में भी आप नहीं खरीद सकते कोई भी संपत्ति।

Jammu kasmir me hi nhi in rajyo me bhi nhi kharid skte aap jameen

जम्मू कश्मीर से धारा 370 हटाने के बाद अब वहां पर कोई भी जमीन या संपत्ति खरीद सकते हैं।
लेकिन जम्मू-कश्मीर के अलावा भी भारत की कई राज्य ऐसे हैं जहां पर आप जमीन नहीं खरीद सकते।
हिमाचल प्रदेश :- यदि आप हिमाचल प्रदेश की निवासी नहीं है तो वहां पर जाकर आप कोई भी संपत्ति या मकान नहीं खरीद सकते यहां तक कि गैर कृषक हिमाचली भी जमीन नहीं खरीद सकते हैं, भले उनके पास हिमाचल का राशन कार्ड क्यों न हो। साल 1972 के भूमि मुजारा कानून की धारा 118 प्रभाव में आई थी, जिसके तहत कोई भी गैर-कृषक अथवा बाहरी निवासी हिमाचल प्रदेश में जमीन नहीं खरीद सकता है।
नार्थ ईस्ट के राज्य :- नॉर्थ ईस्ट के कई राज्य ऐसे हैं जहां पर कोई भी भारतीय लोगों के जाकर अपनी जमीन नहीं खरीद सकते हो इसमें नागालैंड मिजोरम सिक्किम अरुणाचल प्रदेश मेघालय इन प्रदेशों में जाकर आप वहां पर कोई भी सार्वजनिक संपत्ति या फिर जमीन नहीं खरीद सकते।
सिक्किम में केवल सिक्किम के निवासियों को ही जमीन खरीदने की अनुमति है। भारत के संविधान का अनुच्छेद 371एफ, जो सिक्किम को विशेष प्रावधान प्रदान करता है, बाहरी लोगों को शामिल भूमि या संपत्ति की बिक्री और खरीद पर प्रतिबंध लगाता है। इसके अतिरिक्त राज्य के जनजातीय क्षेत्रों में केवल आदिवासी ही भूमि और संपत्ति खरीद सकते हैं।
जम्मू कश्मीर जैसा ही नागालैंड के पास में एक विशेष प्रावधान है 1963 में राज्य बनने के साथ ही विशेष अधिकार के रूप में आर्टिकल 371 (A) का प्रावधान मिला था। इसमें ऐसे कई मामले में जिसमे दखल नहीं दिया जा सकता है।
धार्मिक और सामाजिक गतिविधियां,नगा संप्रदाय के कानून, नगा कानूनों के आधार पर नागरिक और आपराधिक मामलों में न्याय,जमीन का स्वामित्व और खरीद-फरोख्त।

Wednesday, July 10, 2019

Railway Privatization स्वागत कीजिए हजारों बेरोजगारों की छाती पर दौड़ने वाली देश की पहली प्राइवेट ट्रेन का..!

स्वागत कीजिए हजारों बेरोजगारों की छाती पर दौड़ने वाली देश की पहली प्राइवेट ट्रेन का..!

स्वागत कीजिए देश की पहली प्राइवेट ट्रेन का!....... जी हां, दिल्ली और लखनऊ के बीच चलने वाली तेजस एक्सप्रेस देश की पहली प्राइवेट ट्रेन होगी जो उन हजारों बेरोजगारो की छाती पर से दौड़ने वाली है जो सरकारी रेलवे में नौकरी का सपना संजोए बैठे हुए हैं।
इंडियन रेलवे कोई छोटी मोटी संस्था नही है। भारतीय रेलवे 12,000 से अधिक ट्रेनों का संचालन करता है, जिसमें 2 करोड़ 30 लाख यात्री रोज यात्रा करते हैं। भारतीय रेल लगभग एक 'ऑस्ट्रेलिया' को रोज़ ढोती है, रेलवे में करीब 17 लाख कर्मचारी काम करते हैं और इस लिहाज से यह दुनिया का सातवां सबसे ज़्यादा रोज़गार देने वाला संस्थान है। इस लिहाज से इसका निजीकरण किया जाना ऐसे प्रश्न खड़े करता है जिस पर तुरंत ध्यान दिए जाने की आवश्यकता है।
यदि मोदी सरकार के पहले कार्यकाल में निजीकरण की तरफ बढ़ने की गति 1,2,3,4,5,6,7 थी तो मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल में यह गति 2,4,8,16,32,64,128,256, की तरह होने वाली है केंद्र सरकार ने तमाम विरोध के बीच आखिरकार रेलवे के निजीकरण की ओर दिन दूनी रात चौगुनी रफ्तार पकड़ ली है, सरकार रेलवे के कॉरपोरेटीकरण और निजीकरण पर 'आक्रामक तरीके से' आगे बढ़ना चाहती है।
मोदी- 1 में 2014 सितम्बर में, भारतीय रेल में वित्त जुटाने की सिफारिशें देने के लिये, भारतीय रेल ने बिबेक देबरॉय समिति का गठन किया था। जून 2015 को प्रस्तुत बिबेक देबरॉय समिति की रिपोर्ट में रेलवे के निगमीकरण की सिफारिश की गयी थी और कहा गया था कि सरकार के रेल मंत्रालय को सिर्फ नीतियां बनाने का काम करना चाहिये, जबकि निजी खिलाड़ियों को यात्री व माल सेवा प्रदान करनी चाहिये। कमिटी की सिफ़ारिशों में तर्क दिया गया कि ब्रिटेन की तरह ट्रेन संचालन के काम को पटरियों से अलग कर देना चाहिए।
इस समिति की सिफारिशों के रेलवे कर्मचारियों ने पुरजोर विरोध किया, पीएम मोदी ने भी साल 2015 में वाराणसी के डीजल लोको वर्क्स के मजदूरों को संबोधित करते हुए कहा था कि रेलवे का निजीकरण नहीं किया जाएगा।
लेकिन जैसे ही मोदी सरकार दुबारा चुनकर आयी उसने सबसे पहला जो काम किया वह यह था कि तेज गति से रेलवे के निजीकरण ओर निगमीकरण की ओर आगे बढ़ा जाए। इसके तहत रेलवे बोर्ड से एक एक्शन प्लान- 100 तैयार करने को कहा गया जिसपर 100 दिन के भीतर ही कार्रवाई करने के आदेश दिए गए इसके तहत आइआरसीटीसी को लखनऊ से दिल्ली सहित दो रूटों पर निजी क्षेत्र की मदद से प्रीमियम ट्रेन चलाने और रेल कोच फैक्ट्री रायबरेली, कपूरथला सहित सभी प्रोडक्शन यूनिटों का निगमीकरण का लक्ष्य रखा गया है।
लेकिन रेलवे के निजीकरण करने में जो सबसे महत्वपूर्ण बात है उसकी तरफ किसी का ध्यान नही है। कोई भी प्राइवेट ऑपरेटर घाटे वाले ट्रेक पर गाड़ियां नही दोड़ाएगा वो उसी ट्रेक पर ऑपरेट करेगा जो जेब भरे पर्यटकों के रूट हो यानी निजी पूंजीपति सिर्फ रेलवे के मुनाफ़ेदार रास्तों में ही रुचि रखेंगे, जो माल ढोने में या बुलेट रेलगाड़ियों जैसी अमीरों के लिये सेवा में होगा। भारतीय रेल के पास सिर्फ घाटे में चलने वाले रेलमार्ग बचेंगे, जिसमें करोड़ों लोग कम भाड़े में अमानवीय परिस्थिति में यात्रा करेंगे......यही मोदी सरकार की योजना है जिन रेल कोच फैक्टरियों का निगमीकरण किया जा रहा है वह लगातार मुनाफा कमा रही थी।
यह निगमीकरण ओर निजीकरण रेलवे को पूरी तरह से बर्बाद कर देगा यह तथ्य हम जितना जल्दी समझ ले उतना अच्छा है।

Tuesday, July 9, 2019

ऐसा क्या था बजट में, जिसकी वजह से शेयर बाज़ार धड़ाम से गिर गया?

ऐसा क्या था बजट में, जिसकी वजह से शेयर बाज़ार धड़ाम से गिर गया?

दो दिन से एक बात की बड़ी चर्चा है. शेयर बाजार गिर रहा है. हर कोई इसको लेकर अपने-अपने हिसाब से चर्चा कर रहा है. आखिर बजट के बाद से शेयर बाजार क्यों गिर रहा है? वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने ऐसा क्या कर दिया, जिससे निवेशकों में खलबली मच गई. ऐसे कैसे भारत 5 ट्रिलियन की इकॉनमी बन पाएगा. दो-तीन दिन में निवेशकों के 5 लाख करोड़ रुपए से ज्यादा डूब चुके हैं. शेयर बाजार और उसकी ये गिरावट हम आपको समझाएंगे आसान भाषा में. आखिर शेयर बाजार की गिरावट क्यों हो रही है? इसके लिए कौन जिम्मेदार है? और सबसे बड़ी बात इसका हमारे आपके ऊपर क्या असर पड़ने वाला है?
सवाल-1- सबसे पहले ये जान लीजिए शेयर बाजार है क्या और यहां पैसा किसका लगा है?
शेयर बाजार को समझना बहुत ही आसान है. जैसे हमारे-आपके मुहल्ले में सब्जी का बाजार लगता है. लोग यहां से आलू-टमाटर खरीदते हैं. वैसे ही देश की बड़ी-बड़ी कंपनियां अपने शेयर माने कंपनी का एक निश्चित हिस्सा बेचती हैं. शेयरों की ये खरीदफरोख्त बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज यानी BSE और नेशनल स्टॉक एक्सचेंज यानी NSE के जरिए होती है. शेयर खरीदने वाले 4 तरह के लोग होते हैं.
1- रिटेल इनवेस्टर यानी साधारण हमारे-आपके जैसे आम निवेशक.
2- सामाजिक संस्थाएं मतलब ये कि ऐसी संस्थाएं जिन्हें कुछ लोग मिलाकर बनाते हैं.
3- देसी वित्तीय संस्थाएं माने देश के बैंक, बीमा कंपनियां, पेंशन और म्यूचुअल फंड कंपनियां वगैरह.
4- विदेशी पोर्टफोलियो निवेशक यानी FPI माने फॉरेन पोर्टफोलियो इनवेस्टर. ये विदेश में बनी वे संस्थाएं होती हैं, जो भारत में निवेश करने के लिए बनाई जाती हैं. इन निवेशकों को मत भूलिएगा क्योंकि भारत का शेयर बाजार FPI के निवेश से बहुत ज्यादा प्रभावित होता है. FPI का भारत के शेयर बाजार में जमकर पैसा लगा हुआ है.
सवाल-2- ऐसा क्या हुआ जिससे शेयर बाजार लहूलुहान है?
वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने बजट में 3 ऐसे प्रस्ताव किए, जिनसे शेयर बाजार में भगदड़ मच गई. लोग अपने शेयर बेचकर बाजार से निकलने लगे.
बजट प्रस्ताव नंबर-1
लिस्टेड कंपनियों में न्यूनतम पब्लिक होल्डिंग 25 से बढ़ाकर 35 फीसदी की जाएगी.
इस प्रस्ताव का मतलब क्या है?
बजट के इस प्रावधान के 5 मायने हैं.
1– इस प्रस्ताव का मतलब ये है कि शेयर बाजार में जितनी भी कंपनियां रजिस्टर्ड हैं, उन्हें अपनी कंपनी के कम से कम 35 फीसदी शेयर अब निवेशकों को बेचने होंगे.
2- इकनॉमिक टाइम्स की एक रिपोर्ट के मुताबिक देश में इस वक्त 4 हजार 700 कंपनियां रजिस्टर्ड यानी लिस्टेड हैं. इनमें से एक चौथाई कंपनियों में प्रमोटरों यानी कंपनी के मुख्य मालिकों की हिस्सेदारी 65 फीसदी से ज्यादा है.
3- निवेशकों की चिंता ये है कि अगर सरकार का ये प्रस्ताव लागू हो गया तो कंपनियों के प्रमोटरों को करीब 4 लाख करोड़ रुपए के शेयर बेचने होंगे. इससे बाजार में शेयरों की बाढ़ आ जाएगी.
4- साल 2010 में सेबी ने कंपनियों में पब्लिक होल्डिंग बढ़ाकर 25 फीसदी की थी, तब प्रमोटरों को शेयर बेचने के लिए 3 साल दिए गए थे. इस बार ऐसा नहीं है. कंपनी मालिकों को अपनी हिस्सेदारी बेचने का वक्त नहीं मिल रहा.
5- इन वजहों से बाजार को आशंका है कि जो मल्टीनेशनल कंपनियां और आईटी कंपनियां लोकल फंडिंग के सहारे नहीं हैं. और उनमें प्रमोटरों की हिस्सेदारी 65 फीसदी से ज्यादा है, वे खुद को मार्केट से डीलिस्ट कर सकती हैं.
बजट प्रस्ताव नंबर-2
शेयर के बायबैक पर 20 फीसदी टैक्स लगेगा.
इस प्रस्ताव का मतलब क्या है?
कई बार कंपनियां निवेशकों से अपने शेयर वापस खरीदती हैं. इसे शेयर बायबैक कहा जाता है. ये IPO का उलट होता है. मतलब ये कि आईपीओ में कंपनियां शेयर बेचती हैं और बायबैक में वापस अपने ही शेयर खरीद लेती हैं. अब तक कंपनियों को निवेशकों से शेयर वापस खरीदने पर कोई टैक्स नहीं देना पड़ता था. अब उन्हें 20 फीसदी टैक्स चुकाना पड़ेगा. कंपनियां अपने निवेशकों को मुनाफा बांटने के लिए बायबैक ऑफर लाती हैं. अब ये टैक्स लग जाने से कंपनियों को अपनी रणनीति नए सिरे से बनानी होगी. माना जा रहा है कि सरकार का ये प्रस्ताव भी निवेशकों पसंद नहीं आ रहा है.
बजट प्रस्ताव नंबर-3
देश के अमीरों को ज्यादा टैक्स देना पड़ेगा. साल में 2 से 5 करोड़ रुपए की इनकम पर सरचार्ज 15 से बढ़ाकर 25 फीसदी कर दिया गया है. ऐसे लोगों को अब 35.88 फीसदी टैक्स देना होगा. 5 करोड़ रुपए से ज्यादा की आमदनी पर सरचार्ज 37 फीसदी किया गया है. ऐसे लोगों को 42.7 फीसदी टैक्स देना पड़ेगा.
इस प्रस्ताव का मतलब क्या है?
बजट के इस प्रस्ताव से शेयर बाजार में सबसे ज्यादा खलबली है. देश के अमीरों और कुछ विदेशी पोर्टफोलियो निवेशकों यानी FPI पर अब तक एक ही तरह का टैक्स लगता रहा है. अब जब सुपर रिच लोगों के टैक्स पर सरचार्ज बढ़ा दिया गया है तो इसका मतलब ये है कि विदेशी निवेशक भी इसी दायरे में आएंगे. इकनॉमिक टाइम्स की एक रिपोर्ट के मुताबिक इनकम टैक्स पर सरचार्ज बढ़ जाने से विदेशी निवेशकों को ज्यादा टैक्स देना होगा. इसी वजह से FPI ने शेयर बाजार से अपना पैसा निकालना शुरू कर दिया है. 5 जुलाई यानी जिस दिन बजट आया और फिर उसके बाद 8 जुलाई को FPI ने जमकर अपने शेयर बेचे. इससे भारत के शेयर बाजारों में गिरावट देखी गई.
सवाल-3- क्या बाजार में गिरावट की सिर्फ इतनी ही वजहें हैं?
शेयर बाजार में गिरावट के लिए कुछ और वजहों को भी जिम्मेदार माना जा रहा है. मसलन-
1- अमेरिका में रोजगार के आंकड़े जून में बहुत अच्छे आए हैं. मतलब ये कि अमेरिका में लोगों को रोजगार ज्यादा मिलने शुरू हो गए हैं. इसके दो मायने हैं एक- अमेरिका की कंपनियां अच्छा प्रदर्शन कर रही हैं. दूसरा- अमेरिका में बैंकों की ब्याज दरें अब जल्दी कम नहीं होंगी. इससे दुनिया भर के निवेशक अमेरिका के बाजार में पैसा लगाना शुरू कर सकते हैं.
2- अमेरिका में रोजगार के आंकड़े अच्छे आ जाने से एशिया के हॉन्गकॉन्ग, साउथ कोरिया और जापान के शेयर बाजार भी कमजोर हो गए हैं. मतलब ये कि इन देशों के शेयर बाजार से भी निवेशक पैसा निकाल रहे हैं. वे अमेरिका की तरफ जा रहे हैं.
3- कच्चा तेल कुछ महंगा हो गया है. और अमेरिका का डॉलर कुछ मजबूत हुआ है. इन दोनों की मजबूती का मतलब ये होता है कि भारत को अब तेल पर ज्यादा खर्च करना होगा. चूंकि तेल खरीदने की मुद्रा डॉलर है, तो इसका मतलब ये हुआ कि भारत पहले महंगा डॉलर खरीदे. फिर उस महंगे डॉलर से महंगा कच्चा तेल खरीदे.
तो इन कुछ वजहों से भारत का शेयर बाजार इस वक्त परेशान है. 9 जुलाई को भी शेयर बाजार एकदम फ्लैट बंद हुआ यानी अभी उसमें बहुत ज्यादा सुधार नहीं हुआ है.

शेयर मार्केट में जब दिक्कत आती है तो लोगो की हवाइयां उड़ने लगती हैं.