Sunday, March 6, 2022

जब चौधरी चरण सिंह ने एक झटके में 27 हज़ार पटवारियों का इस्तीफा स्वीकार कर लिया था

पढ़िए उस नेता की कहानी जिसने कभी कोई चुनाव नहीं हारा, जिन्हें किसानों का मसीहा कहा जाता था... बात वर्ष 1952 की है, जब 'जमींदारी उन्‍मूलन विधेयक' पारित किया गया, जिसके कारण उत्तर प्रदेश के पटवारी प्रदर्शन कर रहे थे और 27 हज़ार पटवारियों ने एक साथ इस्तीफा दे दिया था। चौधरी चरण सिंह भी ज़िद्दी स्वभाव के थे उन्होंने किसानों के हितों के सामने किसी की नहीं सुनी। किसानों को पटवारी के आतंक से आजाद दिलाने का श्रेय चरण सिंह को ही जाता है। बाद में उन्‍होंने ही खुद नए पटवारी नियुक्‍त किए, जिन्हें अब लेखपाल कहा जाता है। इसमें 18 परसेंट सीट हरिजनों के लिए रिजर्व थी। 1952 में जब डॉक्टर सम्पूर्णानंद मुख्यमंत्री थे, उस समय चरण सिंह को राजस्व तथा कृषि विभाग का दायित्व मिला। इसी समय उन्होंने करीब 27 हज़ार पटवारियों का इस्तीफा स्वीकार कर लिया था। कभी चुनाव नहीं हारे थे चौधरी चरण सिंह चरण सिंह को 'किसानों का मसीहा' कहा जाता था। उन्‍होंने पूरे उत्तर प्रदेश के किसानों से मिलकर उनकी हरसंभव मदद का प्रयास किया। किसानों के प्रति प्रेम का ही नतीजा था कि उनको किसी भी चुनाव में हार का मुंह नहीं देखना पड़ा। चरण सिंह का जन्म 23 दिसम्बर, 1902 को उत्तर प्रदेश के मेरठ ज़िले के नूरपुर गाँव में एक किसान परिवार में हुआ था। चरण सिंह के राजनीतिक जीवन की शुरुआत 1937 में हुई जब कांग्रेस की तरफ से उन्‍होंने विधानसभा चुनाव लड़ा और जीता भी। उन्होंने छपरौली विधानसभा सीट से 9 साल तक क्षेत्रीय जनता का कुशलतापूर्वक प्रतिनिधित्व किया। चौधरी चरण सिंह का राजनीतिक भविष्य 1951 में बनना आरम्भ हो गया था, जब इन्हें उत्तर प्रदेश में कैबिनेट मंत्री का पद प्राप्त हुआ। उन्होंने न्याय एवं सूचना विभाग सम्भाला। 1960 में चंद्रभानु गुप्ता की सरकार में उन्हें गृह तथा कृषि मंत्रालय दिया गया और वह उत्तर प्रदेश की जनता के मध्य अत्यन्त लोकप्रिय नेता बन गए। चरण सिंह ने पंडित जवाहर लाल नेहरू से मनमुटाव के चलते सन 1967 में कांग्रेस पार्टी छोड़ दी और एक नए राजनैतिक दल 'भारतीय क्रांति दल' की स्थापना की। राज नारायण और राम मनोहर लोहिया जैसे नेताओं की मदद से उन्होंने उत्तर प्रदेश में सरकार बनाई और 3 अप्रैल 1967 को उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने। 17 अप्रैल 1968 को उन्होंने मुख्यमंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया। मध्यावधि चुनाव में उन्होंने अच्छी सफलता मिली और दोबारा 17 फ़रवरी 1970 के वे मुख्यमंत्री बने। उसके बाद वो केन्द्र सरकार में गृहमंत्री बने तो उन्होंने मंडल और अल्पसंख्यक आयोग की स्थापना की। 1979 में वित्त मंत्री और उपप्रधानमंत्री के रूप में राष्ट्रीय कृषि व ग्रामीण विकास बैंक (नाबार्ड) की स्थापना की। 28 जुलाई 1979 को चौधरी चरण सिंह समाजवादी पार्टियों तथा कांग्रेस (यू) के सहयोग से प्रधानमंत्री बने। चौधरी चरण सिंह एक लेखक चौधरी चरण सिंह एक राजनेता के साथ ही एक कुशल लेखक भी थे और अंग्रेज़ी भाषा पर अच्छी पकड़़ रखते थे। उन्होंने 'अबॉलिशन ऑफ़ ज़मींदारी', 'लिजेण्ड प्रोपराइटरशिप' और 'इंडियास पॉवर्टी एण्ड इट्स सोल्यूशंस' नामक पुस्तकें भी लिखीं।

चौधरी चरण सिंह के साहसिक कार्य, जिनके कारण बने किसानों के मसीहा

चौधरी चरण सिंह के साहसिक कार्य, जिनके कारण बने किसानों के मसीहा

 पूर्व प्रधानमंत्री स्व. चौधरी चरण सिंह का जन्म 23 दिसंबर 1902 को हापुड़ की बाबूगढ़ छावनी के पास नूरपुर गांव में हुआ था. उनके पिता एक बेहद साधारण किसान थे. चौधरी चरण सिंह ने साल 1926 में मेरठ से कानून में डिग्री (Law degree) ली और गाजियाबाद से वकालत की शुरुआत की. वह अंग्रेजों से देश को आजाद कराने की लड़ाई में जेल भी गए. गौरतलब है कि चौधरी चरण सिंह किसानों के नेता माने जाते रहे हैं, इसलिए उनके द्वारा किए गए कामों के बारे में जान लेते हैं.

 National Farmers Day पूर्व प्रधानमंत्री स्व. चौधरी चरण सिंह का जन्म 23 दिसंबर 1902 को हापुड़ की बाबूगढ़ छावनी के पास नूरपुर गांव में हुआ था. उनके पिता एक बेहद साधारण किसान थे. चौधरी चरण सिंह ने साल 1926 में मेरठ से कानून में डिग्री (Law degree) ली और गाजियाबाद से वकालत की शुरुआत की. वह अंग्रेजों से देश को आजाद कराने की लड़ाई में जेल भी गए. 
गौरतलब है कि चौधरी चरण सिंह किसानों के नेता माने जाते रहे हैं, इसलिए उनके द्वारा किए गए कामों के बारे में जान लेते हैं. चौधरी चरण सिंह के साहसिक कार्य और घटनाक्रम (Chaudhary Charan Singh's daring task and Events) संविधान बनाने वालों (Constitution maker) को जिन अहम मुद्दों से जूझना पड़ा, उनमें से एक भारत का सामंती सिस्टम था, जिसने देश की आजादी से पहले सामाजिक स्थिति (social status) को बुरी तरह चोट पहुंचाई थी. उस समय जमीन का मालिकाना हक (Land ownership) कुछ ही लोगों के पास था, जबकि बाकी लोगों की जरूरतें भी पूरी नहीं हो पाती थी. इस असमानता को खत्म करने के लिए सरकार कई भूमि सुधार कानून (Land reform bill) लेकर आई, जिसमें से एक जमींदारी उन्मूलन कानून (Zamindari abolition law) 1950 भी था. 

चौधरी साहब 1951 में सूचना एवं न्याय मंत्री (Minister of Information and Justice) बने और तीन महीने बाद ही कृषि मंत्रालय (Ministry of Agriculture) भी उनके अधीन आ गया. सामंतशाही ताकतों ने पटवारियों की शरण ली. फिर से किसानों की जमीन को धोखे से जमींदारों को दिया जाने लगा. इस पर चौधरी चरण सिंह ने उन्हें कड़ी चेतावनी दी जिसके रोष में हजारों पटवारियों ने सामूहिक रूप से इस्तीफे दे दिया. 

सामंतवादी ताकतों को विश्वास था कि सरकार को उनके सामने घुटने टेकने पड़ेंगे, लेकिन चौधरी साहब के दृढ़ निश्चय ने उनका साहस तोड़ दिया. पटवारियों के सभी समूहिक त्याग पत्र (resignation letter) स्वीकार कर उनके स्थान पर लेखपालों की भर्ती कर दी गई. एक जुलाई 1952 को यूपी में उनकी बदौलत जमींदारी प्रथा का उन्मूलन जमींदारी उन्मूलन विधेयक द्वारा किया गया. जिससे किसानों और गरीबों को उनका अधिकार मिला. इसके बाद 1954 में योजना आयोग (Planning Commission) ने आदेश जारी किया कि जिन जमींदारों के पास खुद खेती के लिए जमीन नहीं है, उनको 30 से 60 फीसदी भूमि लेने का अधिकार है. चौधरी साहब ने इसमें भी हस्तक्षेप (Interference) किया और ये कानून उत्तर प्रदेश में लागू नहीं हुआ. मगर अन्य प्रदेशों में योजना आयोग के इस आदेश की आड़ में गरीब किसानों से भूमि छीन ली गई. इसके बाद 1956 में चौधरी चरण सिंह ने जमींदारी उन्मूलन एक्ट (Zamindari Abolition Act) में यह संशोधन किया गया कि कोई भी किसान भूमि से वंचित नहीं किया जाए, जिसका किसी भी रूप में जमीन पर कब्जा हो. ये ऐसा साहसी कार्य था जिसकी सराहना देश में ही नहीं बल्कि विदेशों तक में की गई थी. गरीब किसानों को जमींदारों के शोषण से मुक्ति दिलाकर उन्हें भूमिधर बनाने वाला यह कानून बनाया. 3 अप्रैल 1967 को उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने. उसके बाद चौधरी चरण साहब केन्द्र सरकार में गृहमंत्री बने तो उन्होंने मंडल और अल्पसंख्यक आयोग की स्थापना की. 1979 में वित्त मंत्री और उपप्रधानमंत्री के रूप में राष्ट्रीय कृषि व ग्रामीण विकास बैंक (NABARD) की स्थापना की. नाबार्ड वहीं संगठन है जो कृषि क्षेत्र के विकास में बैंक की बड़ी भूमिका निभाता है. 

चौधरी चरण सिंह ने जुलाई 1979 से जनवरी 1980 तक भारत के प्रधानमंत्री के रूप में काम किया. चूंकि भूमि राज्य का विषय है, इसलिए अधिकतर राज्यों ने जमींदारों को भूमि के एक हिस्से पर खेती करने और उसे अपने पास रखने की इजाजत दी, मगर जमींदारों ने इसका भी फायदा उठाया और भूमि पर खुद खेती करनी शुरू कर दी ताकि राज्य सरकार उनसे जमीन वापस न मांग सके. बाद में आर्टिकल 31(a), 31(b) और नौंवा शेड्यूल संविधान में जोड़े गए, इन आर्टिकल्स से जमींदारों को कानूनी सलाह लेने से रोका गया और सरकार के संसोधित कानूनों को चुनौती देने से भी रोका गया, साथ ही राज्य सरकारों को कानून बनाने या किसी की संपत्ति या जमीन का कब्जा करने का अधिकार भी मिल गया. जमींदारी उन्मूलन कानून से पहली बार बेगारी या बंधुआ मजदूरी को कानूनन अपराध के दायरे में लाया गया. उन्होंने सहकारी कृषि एवं जमींदारी उन्मूलन पर पुस्तकें भी लिखीं, जिनकी सराहना दुनिया भर में की गई और की जा रही है. भारत सरकार (Govt of India) द्वारा साल 2001 में 23 दिसंबर को चौधरी चरण सिंह के जन्म दिवस पर राष्ट्रीय किसान दिवस (National Farmers Day) मनाने का फैसला किया गया.


Saturday, March 5, 2022

बीजेपी में क्यों है हार का डर, ये हैं 6 बड़े कारण

बीजेपी में क्यों है हार का डर, ये हैं 6 बड़े कारण

उत्तरप्रदेश में साल (2022) के विधानसभा चुनाव होरहे हैं। इस चुनाव को लगातार दिलचस्प बना रहे हैं सपा प्रमुख अखिलेश यादव । अखिलेश यादव की सक्रियता यूपी में देखने लायक है। भाजपा सत्ता वापसी के लिए बेचैन नजर आने लगी हैं। मौजूदा हालात को देखते हुए यही कयास हैं कि बीजेपी की हार सुनिश्चित है।
संभवतः योगी आदित्यनाथ सत्ता से बाहर होना तय है। इस चुनाव से पहले बीजेपी राम मंदिर मुद्दे को भी खत्म कर चुकी है। जनसंख्या नियंत्रण कानून पर भी चर्चा शुरू हो चुकी है। उसके बावजूद बीजेपी अपनी जीत को लेकर आश्वस्त नहीं बताई जाती। उसकी कुछ ये बड़ी वजह नजर आती हैं...

पूर्वांचल में पुराने साथियों का छूटना
2017 के विधानसभा चुनाव में पूर्वांचल फतह करने के लिए बीजेपी एक नए फॉर्मूले के साथ मैदान में उतरी थी। बीजेपी ने 2017 के विधानसभा चुनाव में उन छोटे राजनीतिक दलों के साथ में गठबंधन किया, जिनका अपना जातिगत वोटबैंक है। इसी फॉर्मूले का फायदा बीजेपी को मिला और बीजेपी को 2017 के विधानसभा चुनाव में 28 जिलों की 170 सीटों में से 115 सीटें मिली थीं। यह नंबर सच में करिश्माई थे। लेकिन, इस आंकड़े को अकेले बीजेपी ने अपने दम पर हासिल नहीं किया था। उसकी मदद इन छोटे राजनीतिक दलों से जुड़े उनके जातिगत वोटबैंक ने की थी। आइये समझते है पूर्वांचल में इन छोटे राजनीतिक दलों की ताकत जो किसी का भी खेल बना और बिगाड़ सकते हैं। सपा का गठबंधन दूध का जला छाछ भी फूंक-फूंक कर पीता है कुछ ऐसा ही हाल अखिलेश यादव का है। 2019 में बसपा का साथ लेकर सपा को जो नुकसान हुआ था।
उसके बाद अब अखिलेश 2022 के लिए छोटे छोटे दलों के साथ गठबंधन किया हैं। सपा ने राष्ट्रीय लोकदल, संजय चौहान की जनतावादी पार्टी और केशव मौर्या की महान दल के साथ में गठबंधन कर लिया है। बनारस, मथुरा, अयोध्या में सपा की बल्ले-बल्ले जिला पंचायत चुनाव में भले ही बीजेपी ने बाजी मारी हो। पर कुछ नतीजे बीजेपी के लिए भी चौंकाने वाले थे। क्योंकि पार्टी को उन जगहों पर झटका लगा था जहां बिलकुल उम्मीद नहीं थी। अयोध्या में मंदिर मसला हल होने का फायदा जिला पंचायत चुनाव के नतीजों में नजर नहीं आया। यहां समाजवादी पार्टी का दबदबा दिखाई दिया। कमोबेश यही नतीजे बनारस और मथुरा में नजर आए। बता दें बनारस पीएम नरेंद्र मोदी की लोकसभा सीट है।

किसान आंदोलन देश में किसान पिछले 8 महीनों से आंदोलन कर रहे हैं। इस आंदोलन का असर उत्तर प्रदेश की सियासत पर देखने को मिल रहा है। किसान आंदोलन का सबसे अधिक असर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश को जाट लैंड कहा जाता है, यहां पर एक कहावत कही जाती है कि 'जिसका जाट उसके ठाठ'। इसकी एक वजह यह है कि चौधराहट करने वाले इस समाज के निर्णय से कई जातियों का रुख तय होता है। किसान आंदोलन से यही जाट बीजेपी से खिसक चुके हैं। ब्राह्मणों की नाराजगी साल 2017 में बीजेपी ने पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में वापसी की तो राजपूत समुदाय से आने वाले योगी आदित्यनाथ मुख्यमंत्री बने। यही वजह है कि योगी सरकार में राजपूत बनाम ब्राह्मण के विपक्ष के नैरेटिव के मद्देनजर ब्राह्मण वोटों का अपने पाले में जोड़ने के लिए बसपा से लेकर सपा और कांग्रेस तक सक्रिय है। विकास दुबे और उसके साथि‍यों के एनकाउंटर के बाद बहुजन समाज पार्टी (बसपा) की राष्ट्रीय अध्यक्ष मायावती ने उत्तर प्रदेश में योगी अदित्यनाथ की सरकार में ब्राह्मणों पर अत्याचार बढ़ने का आरोप लगाया था। ब्राह्मण बुद्धिजीवियों का आरोप है कि एकतरफा समर्थन के बावजूद सरकार में ब्राह्मणों को राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक रूप से किनारे कर दिया गया है।

मोदी बनाम योगी!
मोदी और योगी के बीच सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है। उत्तर प्रदेश की राजनीतिक गलियारों में मोदी बनाम योगी को लेकर काफी चर्चाएं हैं। इन चर्चाओं ने ऐसे ही जन्म नहीं लिया है, इनके पीछे कुछ ठोस वजह हैं। हालांकि बीजेपी ने हर बार यही जाहिर किया है कि पार्टी के अंदर ऐसी कोई कलह नहीं है।