Saturday, November 25, 2017

यूपी निकाय चुनाव: सिंबल का सम्मान और सियासी शान बनाए रखने की लड़ाई यूपी विधानसभा चुनाव के बाद ये निकाय चुनाव एसपी और बीएसपी के लिए करो या मरो की लड़ाई है

बीते 22 नवंबर को लखनऊ में समाजवादी पार्टी के मुख्यालय पर मुलायम सिंह यादव का जन्मदिन मनाने पहुंचे सपाइयों के हुजूम को मुलायम ने जमकर लताड़ा था. यह कहकर कि इस साल मार्च में हुए विधानसभा चुनाव में पार्टी को मिली महज 47 सीटें शर्मनाक प्रदर्शन हैं.

बकौल मुलायम, इतनी बुरी हालत तो नब्बे के दशक में तब भी नहीं हुई थी जब यूपी का मुख्यमंत्री रहते उन्होंने अयोध्या में कारसेवकों पर गोलियां चलवाईं थीं. उन्होंने अपने बेटे अौर एसपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव की तो तारीफ की लेकिन यह तोहमत मढ़ी कि पार्टी के युवा नेताअों के नाकारापन के कारण विधानसभा चुनाव में बुरी गत हुई.

विरोधाभास भले लगे पर मुलायम की इस लताड़ से पार्टी के कई बड़े नेता खुश हैं. इसलिए कि यह वाकया यूपी में चल रहे निकाय चुनावों के दौर में हुअा अौर मुलायम की डांट से एसपी के युवा कार्यकतार्अों में नया जोश भरा है कि इन शहरी चुनावों में पार्टी अौर अौर अपने ‘भैया’ यानी अखिलेश यादव का सम्मान वापस लाने की कोई कसर नहीं छोड़नी है.

चुनाव के दूसरे चरण के लिए 26 नवंबर को होने वाले मतदान के प्रचार का शोर शुक्रवार शाम थम जाने के बाद एसपी के प्रदेश अध्यक्ष नरेश उत्तम गदगद भाव से बोले, 'पहले चरण से भी अच्छा प्रदर्शन करेंगे हम.'

सिंबल के इज्जत का सवाल है

दरअसल समाजवादी पार्टी के लिए यूपी के निकाय चुनाव वाकई सम्मान वापस पाने की लड़ाई ही है. यह लड़ाई अबकी इसलिए ज्यादा अहम है क्योंकि पहली बार समाजवादी पार्टी अपने सिंबल साइकिल पर चुनाव मैदान में उतरी है. यही बात मायावती की बहुजन समाज पार्टी पर भी लागू होती है क्योंकि वह भी पहली बार अपने चुनाव चिह्न हाथी के साथ मैदान में है.

समाजवादी पार्टी के चुनाव अभियान की तस्वीर
हालांकि, शहरों की सरकार चुनने के इस चुनाव से न तो यूपी में सरकार बदलनी है अौर न ही दिल्ली में, पर साइकिल अौर हाथी में यह होड़ है कि कौन अगले से अागे निकल जाए क्योंकि जो बाजी मारेगा लोकसभा के अगले चुनाव से पहले यूपी में अपनी सियासी प्रासंगिकता कायम रखने का संदेश भी दे सकेगा. गौरतलब है कि बीजेपी अौर कांग्रेस पहले भी सिम्बल पर निकाय चुनाव लड़ते रहे हैं.
यूपी में समाजवादी पार्टी मुख्य विपक्षी दल है. न सिर्फ अांकड़ों के अाधार पर बल्कि संगठन के बूते भी. युवाअों के बड़े तबके में अभी भी समाजवादी पार्टी को लेकर अाकर्षण है. अखिलेश यादव के हाथ में पार्टी की कमान अाने के बाद इसमें अौर इजाफा हुअा है. निकाय चुनावों में भी यह दिख रहा है. पार्टी की प्रचार सभाअों, जुलूसों में युवा चेहरे बीएसपी या कांग्रेस की तुलना में ज्यादा दिखते हैं.

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चूंकि चुनाव सिंबल पर हो रहे हैं तो नतीजों से दूध का दूध अौर पानी का पानी हो जाएगा. यानी जमीन पर स्थानीय नेताअों ने कितनी मेहनत की उसका खुलासा हो जाएगा. नतीजे पक्ष में न अाने पर किसी संभावित कार्रवाई के खौफ से जिलों, शहरों के नेता-कार्यकर्ता जी-जान से जुटे हैं.

समाजवादी के पक्ष में एक बात यह भी है कि विधानसभा चुनाव में खराब नतीजों के बावजूद पार्टी के प्रति नेताअों का भरोसा टूटा नहीं है. बीएसपी अौर कांग्रेस छोड़ कई बड़े नेता बीते कुछ महीनों में एसपी में शामिल हुए हैं जिनमें बीएसपी से अाए दलितों के कद्दावर नेता इंद्रजीत सरोज भी शामिल हैं.
समाजवादी पार्टी के रणनीतिकरों का यह भी मानना है कि विधानसभा के चुनाव में गैर यादव अोबीसी जातियों का जो बड़ा तबका बीजेपी के साथ गया था उसका सत्तारूढ़ दल से मोहभंग शुरू हुअा है अौर निकाय चुनावों में वह साइकिल की सवारी करेगा. निकाय चुनावों में मुस्लिम वोटरों के रुख को लेकर बाकी गैर बीजेपी दलों की तुलना में एसपी ज्यादा अाश्वस्त दिख रही है.

समाजवादी पार्टी की लखनऊ से मेयर प्रत्याशी मीरा वर्द्धन अपने समर्थकों के साथ.
ऐसा इसलिए क्योंकि विधानसभा चुनावों से भाजपा के मजबूत होकर उभरने के बाद मुस्लिम वोटरों का बड़ा हिस्सा समाजवादी पार्टी को अपनी स्वाभाविक पसंद मान रहा है. इस तबके से मिल रहे ऐसे ही संकेतों के कारण एसपी ने अब अति अल्पसंख्यकवाद की पुरानी सियासत को पीछे किया है अौर हिंदू प्रतीकों की राजनीति के जरिए बीजेपी को उसके ही हथियार से घेरने की कोशिश कर रही है. इटावा के सैफई में भगवान श्रीकृष्ण की मूर्ति बनवाने की अखिलेश यादव की पहल इसी रणनीति का हिस्सा है.
'काम बोलता है' के नारे लड़ रहे हैं अखिलेश
विधानसभा के चुनाव में अखिलेश यादव ने अपनी सरकार में हुए काम के हवाले से 'काम बोलता है' को अपने चुनाव प्रचार का सबसे बड़ा नारा बनाया था. तब वह काम नहीं अाया पर निकाय चुनावों में भी अखिलेश अपनी सरकार में हुए काम का हवाला देकर बीजेपी पर हमले कर रहे हैं.

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चुनाव में वे प्रचार जरूर नहीं कर रहे लेकिन नियमित प्रेस कांफ्रेंस व वोटरों के नाम जारी अपील के जरिए वे यही कह रहे हैं कि यूपी की जनता को अगर काम चाहिए तो यह एसपी ही कर सकती है. वे बीजेपी के लिए यह सवाल भी उछाल रहे हैं कि अाठ महीने की सरकार में योगी अादित्यनाथ की सरकार ने क्या किया इसका हिसाब दें?

समाजवादी पार्टी की अोर से अखिलेश यादव को एक युवा, पढ़े-लिखे व काम को तवज्जो देने वाले नेता के रूप में पेश कर शहरी वोटरों में पैठ बनाने की कोशिश कितनी कामयाब होती है यह 1 दिसंबर को निकाय चुनावों के नतीजों के अाधार पर ही साफ होगा पर एसपी के मुख्य प्रवक्ता राजेन्द्र चौधरी दावा करते हैं- 'बीजेपी से जनता का तेजी से मोहभंग हुअा है क्योंकि उन्हें विकास से मतलब नहीं. वहीं अखिलेश यादव की छवि ऐसे बेदाग नेता की है जो काम करने में यकीन करते हैं. वे कार्यकर्ताअों पर भरोसा करते हैं इसलिए चुनाव की जिम्मेदारी उन पर सौंपी है फिर भी बीजेपी डरी हुई है अौर मुख्यमंत्री व उनके तमाम मंत्री प्रचार में जुटे हैं अौर ऊल-जलूल बयानबाजी कर रहे हैं. जनता उनके झांसे में नहीं अाने वाली.'
2014 के लोकसभा अौर 2017 के विधानसभा चुनावों में सपा अगर पहले से कमजोर हुई तो वहीं बीएसपी गर्त में ही चली गई. लोकसभा के चुनाव में उसका खाता ही नहीं खुला जबकि विधानसभा चुनाव में वह महज 19 सीटों पर सिमट गई. लिहाजा निकाय चुनाव बीएसपी के लिए एसपी से भी बड़ी चुनौती है कि वह अपने को लड़ाई में वापस लाए.
लखनऊ में बहुजन समाज पार्टी के चुनाव अभियान की तस्वीर
वही हाल मायावती का
मायावती भी निकाय चुनावों में प्रचार नहीं कर रही हैं. कुछ बैठकें कर उन्होंने जरूरी निर्देश जरूर दिए हैं बीएसपी कोई कसर जरूर नहीं छोड़ रही पर उसके सामने सबसे बड़ा संकट कद्दावर नेताअों की कमी की है. विधानसभा चुनावों से बड़े नेताअों के पार्टी छोड़ने का शुरू हुअा सिलसिला अभी भी जारी है. कभी मायावती के बेहद विश्वस्त रहे नसीमुद्दीन भी पार्टी छोड़ चुके हैं. जो नेता बीएसपी में हैं भी वे गुजरात विधानसभा के चुनाव में भी लगे हैं.

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इनमें यूपी बीएसपी के अध्यक्ष रामअचल राजभर भी शामिल हैं. अाधार वोट का संकट भी बीएसपी को परेशान कर रहा है. दलितों के एक बड़े तबके में बीजेपी ने पहले लोकसभा अौर फिर विधानसभा के चुनाव में सेंध मारी थी. बीएसपी के लिए निकाय चुनावों में इसे वापस लाने की बड़ी चुनौती है. दलितों पर अत्याचार का अारोप लगाते हुए मायावती ने हाल में कहा था कि यह नहीं थमे तो वह बौद्ध धर्म अपना लेंगी.
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि अपने कोर वोट बैंक को जातीय पहचान छोड़ हिंदू पहचान को तवज्जो देने से रोकने के लिए ही उन्होंने निकाय चुनावों से पहले यह बयान दिया.
लखनऊ से बीएसपी की मेयर उम्मीदवार बुलबुल गोडियाल
इस चुनाव में एक बड़ी चुनौती योगी सरकार में शामिल भारतीय समाज पार्टी यानी भासपा की भी है. विधानसभा चुनाव में भाजपा के साथ तालमेल कर लड़ने वाली भासपा के चार विधायक जीते. पार्टी के अध्यक्ष अोमप्रकाश राजभर योगी सरकार में कैबिनेट मंत्री बनाए गए पर बीते अाठ महीनों में दोनों पक्षों में खटास काफी बढ़ चुकी है. इस हद तक कि निकाय चुनाव में राजभर ने कई जगह बीजेपी के खिलाफ अपने प्रत्याशी उतार दिए हैं.
सरकार में शामिल बीजेपी के राज्य मंत्री अनिल राजभर चुनावी सभाअों में अोमप्रकाश राजभर को ‘एहसानफरामोश’ बता रहे हैं तो अोमप्रकाश उसी शैली में जवाब दे रहे हैं. सत्ता के साथी एक-दूसरे से विपक्षियों सरीखा बर्ताव कर रहे हैं. अोबीसी मेें शामिल राजभर बिरादरी पर पकड़ की इस होड़ में कौन बाजी मारता है यह नतीजों से साफ होगा. साथ ही यह भी कि भासपा अपनी ताकत दिखा कर सरकार में बनी रहेगी या मात खाकर सरकार से बाहर का रास्ता देखेगी.

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